जानिये सनातन धर्म के अनुसार पूजन विधि में छुपे रहस्य
नमस्कार मित्रों ,
मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित बताये गए कुछ वाक्यों अथवा नियमों के विषय में कुछ जानकरी लेकर....
मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित बताये गए कुछ वाक्यों अथवा नियमों के विषय में कुछ जानकरी लेकर....
वैसे तो हम सभी अपने घर में किसी न किसी तरह से पूजा पाठ इत्यदि करते एवं करवाते ही रहते हैं परन्तु क्या आपने कभी सोचा है की हम भगवान के पूजन में जिन भी सामग्रियों का प्रयोग कर रहे हैं वास्तविकता में उसका क्या महत्व है ? जब भी कभी ब्राह्मण देवता हमारे घर आकर किसी विशेष अनुष्ठान को संपन्न कराते हैं तो उस प्रक्रिया में होने वाले पूजन का क्या महत्व है ? और आखिर क्यों किया जाता है निम्नलिखित विधि से ही भगवान का पूजन ?
देवपूजन में प्रयुक्त विधि क्रमश: है -
ध्यान, अवाहन, स्थापन , प्रतिष्ठापन , { पाद्य -अर्घ्य-आचमन-स्नान } दूध, दही ,घी ,शहद , शक्कर , पंचामृत , गंधोदक , शुद्धोदक ,वस्त्र ,उपवस्त्र , जनेऊ ,चन्दन ,रोली , अक्षत ,पुष्प , दूर्वा , सिन्दूर , नानापरिमल द्रव्य . सुगन्धित द्रव्य , धुप , दीप , नैवेद्य , ऋतुफल , ताम्बूल ,दक्षिणा ,प्रार्थना आदि
मैंने न केवल अन्य धर्म से जुड़े लोगों को बल्कि अपने ही सनातन धर्म के लोगों को ऐसा कहते सुना है की भगवान की पूजा पाठ तो केवल एक दिखावा है भगवान तो हृदय में होते हैं भगवान पर कुछ चढाने से अच्छा है कि किसी गरीब को दान कर दिया जाए ! मैं इस बात का बिलकुल विरोध नहीं करता की गरीब को दान दो ! दो बिलकुल दो यदि भगवान ने आपको इस योग्य बनाया हो तो करना भी चाहिये परन्तु किसी और का हिस्सा किसी और को दे देना भी कंहा का पुण्य हुआ ?
परन्तु वो ऐसा कह सकते ! वो ऐसा इसलिए कह सकते हैं क्यूँ की दरअसल उन्हें भागवान पर चढाई जाने वाली वस्तुवों का महत्व ही नहीं पता की आखिर भगवान को कौन सी वस्तु क्यूँ चढाई जाती है और आखिर उस वस्तु को चढाने का महत्व ही क्या है?
आपके ऐसे ही कुछ प्रश्नों का जवाब देने हेतु मैं आज इस ब्लॉग को लिख रहा हूँ यदि यह ब्लॉग आपको पसंद आता है तो कृपया सब्सक्राइब अवश्य कीजियेगा !
ऐसी मान्यता है की भगवान का पूजन किसी भी विशेष रीति पर आधारित ही नहीं है अपितु यह वह सभ्यता है जो भारत के हर गाँव में अतिथि सत्कार हेतु आज भी निभाई जाती है !
हमारा भारत देश अतिथि देवो भव: की सभ्यता को मानने वाला देश रहा है ! उसी मान्यता के अनुसार हम जब भी भगवान को पूजन हेतु आमंत्रित करते हैं तब उनका पूजन भी उनको अतिथि मानकर ही करते हैं जैसे- जब भी हमारे घर कोई अतिथि आते हैं तो हम उन्हें पहले साधुवाद करते हैं की- हे अतिथेय आपका सादर आभार जो आप हमारे घर पधारे .....!
( इस प्रक्रिया को ही उपर्युक्त बताई गयी पूजन विधि के अनुसार ध्यान कहा गया है)
अर्थात वह सभी प्रक्रियायें जो हम किसी अतिथि के आने पर सम्पन्न करते हैं वही प्रक्रिया जब हम ईश्वर को अतिथि मान कर सम्पन्न करते या करवाते हैं तब उसे पूजन या अनुष्ठान कहा जाता है
( इस प्रक्रिया को ही उपर्युक्त बताई गयी पूजन विधि के अनुसार ध्यान कहा गया है)
इस पूजन में भगवान को चढाई जाने वाली हर वस्तु का अपना ही महत्व होता है
जैसे -
आवाहन :- अतिथि जन को घर में पधारने का निमंत्रण देना ही आवाहन कहलाता है !
स्थापन :- अतिथि को आदर सहित बैठने हेतु आसन आदि देना स्थापन के अंतर्गत आता है !
प्रतिष्ठापन :- अतिथि का सम्मान कर उनका सकुशल जानना अतिथि के प्रतिष्ठापन के अंतर्गत आता है परन्तु देव पूजन में यह नियम देवताओं को प्राण प्रतिष्ठित करने हेतु होता है !
पाद्य :- के माध्यम से हम आवाहित देवी देवताओं के चरण धुलवाते हैं
अर्घ्य :- के माध्यम से हम आवाहित देवी देवताओं को अर्घ्य अर्पित करते हैं
आचमन :- के माध्यम से हम आवाहित देवी देवताओं को पीने हेतु शुद्ध जल अर्पित करते हैं
स्नान :- के माध्यम से हम आवाहित देवी देवताओं का शुद्ध जल से स्नान सम्पन्न कराते हैं ! जिसके पश्चात भगवान का साही स्नान किया जाता है ( दूध, दही ,घी ,शहद , शक्कर ,)
इन पांच चीजों को शास्त्रों ने अमृत की संज्ञा दी है जब इन पांच अमृतों से भगवान का स्नान सम्पन्न कार्य जाता है तब इसे महाअभिषेक की संज्ञा दी जाती है
ऐसी मान्यता है की भारत वर्ष में पहले दूध दही इतनी अधिक मात्र में होता था की लोग इनसे अपनी सुदृढ़ता बढ़ने हेतु एवं अपने यौवन को निखारने हेतु स्नान तक किया करते थे ! हमारे बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद होता था ( दूधो नहाओ पूतो फलो ) मान्यता यह भी है की भगवान कमलापति नारायण क्षीर सागर (the ocean of milk) में रहते हैं
अर्थात दूध के समुद्र में रहते हैं ( अर्थात ऐसा समुद्र जिसका जल दूध की भांति सफ़ेद दिखाई देता हो ) और तो और वेदों में तो यंहा तक कहा गया है -
- ॐ पयः पृथिव्यां पय औषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥
अर्थात- हे प्रभु आप इस पृथ्वी पर समस्त पोषकतत्वों में दुग्ध के सामान पवित्र रस को स्थापित करते हैं औषधियों में जीवन रूपी दुग्ध रस को स्थापित करें अन्तरिक्ष में दुग्ध रूपी दिव्य रस को स्थापित करें स्वर्ग में ऐसे श्रेष्ठ रस को स्थापित करें हमारे लिए यह सब दिशाएं एवं उप दिशाएं अभीष्ट दुग्ध रुपी रसों को देने वाली हो आप हमारा इसी प्रकार पोषण करें !
इसी भावना को हृदय में धारण कर के अतिथि रुपी उन ईश्वर का पंचामृत से स्नान कराया जाता है !
गंधोदक :- के माध्यम से हम आवाहित देवी देवताओं को गन्ध मिश्रित जल से स्नान कराते हैं !
शुद्धोदक :- के माध्यम से हम आवाहित देवी देवताओं को शुद्ध जल से स्नान कराते हैं !
वस्त्र ,उपवस्त्र :- के माध्यम से हम आवाहित देवी देवताओं को वस्त्र (धोती आदि ),उपवस्त्र (गमछा आदि) अर्पित करते हैं
जनेऊ :- के माध्यम से हम आवाहित देवताओं को जनेऊ (क्यों की यह हमारे नियमों का प्रतिक चिन्ह है) अर्पित करते हैं
चन्दन ,रोली :- के माध्यम से हम आवाहित देवी देवताओं को चंदन , रोली अर्पित करते हैं चन्दन लगाने का तात्पर्य है कि हमारे जीवन का हर अंश चंदन की तरह महके हम दूसरों की सेवा में अपने को समर्पित करना सीखें । जो चंदन की तरह बनता है । भगवान को प्रिय होते हैं ।
अक्षत :- अक्षतं समर्पयामि कहकर जो चावल चढ़ाए जाते हैं , उसका तात्पर्य है कि हम जो अनाज
, पैसा , संपत्ति कमाते हैं, उसमें से एक अंश भगवान और उसके द्वारा रचित प्राणियों के लिए लगाएं ।
पुष्प :- पुष्पं समर्पयामि कहकर जो पुष्प चढ़ाए जाते हैं , उनका तात्पर्य है कि पुष्प की तरह ही हमारा जीवन हमेशा खिलता रहे । फूल की तरह एक होकर समर्पित जीवन जीने और लोक मंगल के लिए अपना सर्वस्व सर्वत्र बिखेरने तथा अपनी सुगंध से सबको मोहित करने का गुण हम जीवन में अपनाएं ।
दूर्वा :- दूर्वा समर्पयामि कहकर जो दूर्वा चढाया जाता हैं , उनका तात्पर्य है कि जिस प्रकार यह दूर्वा कंही भी लगा दिया जाए यह स्वत: की वृद्धि करता रहता है है प्रभु उस प्रकार से मेरे नाम यश कीर्ति एवम वंश की वृद्धि सहित मेरी भक्ति की भी वृद्धि होति रहे !
सिन्दूर :- सिन्दूरं समर्पयामि कहकर जो सिन्दूर चढाया जाता हैं , उनका तात्पर्य है कि जिस प्रकार से यह सिन्दूर अखंडता का प्रतिक है हे परमात्मा मेरी भक्ति भी आपके श्री चरणों में ऐसे ही अखंड बनी रहे !
नानापरिमल द्रव्य :- नानापरिमल द्रव्यं समर्पयामि कहकर नानापरिमल द्रव्य भगवान को अर्पित किया जाता है जो की अबीर,गुलाल और हल्दी को नीबू के रस में मिलाकर बानाया जाता है ,यह द्रव्य त्वचा का शोधन और मस्तिष्क स्नायुओं का संयोजन करता है । हल्दी में रक्त को शुद्ध करने , शरीर की त्वचा में निखार लाने , घाव को ठीक करने और अनेक बीमारियां दूर करने का गुण है । यह एक महत्त्वपूर्ण औषधि भी है ।
सुगन्धित द्रव्य :- सुगन्धित द्रव्यं समर्पयामि कहकर भगवान् के श्री चरणों में इत्र को एक रुई की सहायता से अर्पित किया जाता है!
धुप :- धूपबत्ती जलाने से सकारात्मक जैव विद्युत चुंबकीय ऊर्जा उत्पन्न होती है , जिससे मन में नकारात्मक विचार कम आते हैं और स्वास्थ्य अच्छा रहता है । साथ ही इनके जलाने का तात्पर्य यह है कि हमारा जीवन और व्यक्तित्व ऐसा बने कि जहां कहीं भी जाएं , सबके मन में सुगंध और प्रसन्नता ला दें ।
दीप :- दीपक के पात्र , घी और बत्ती पात्रता , निष्ठा और समर्पण के प्रतीत है । घी को जोकने के लिए जैसे पात्र की आवश्यकता होती है , ठीक वैसी ही पात्रता हममें भगवान की सेवा की होनी चाहिए । समाज सेवा और सत्कर्मों के प्रति निष्ठाभाव ज्ञान का प्रकाश जन - जन तक पहुंचाने , भटकों को राह दिखाकर उनका मार्ग आलोकित करने और अंधेरा दूर करने की प्रतिज्ञा लेकर हम स्वयं को भगवान के सामने आत्मसर्पण करके प्रार्थना करें । यही दीप जलाने की यथार्थता है ।
नैवेद्य , ऋतुफल :- नैवेद्य ( प्रसाद ) के रूप में मिष्ठान , फल आदि भगवान को चढ़ाने का अर्थ है कि इस पृथ्वी से हमें जो कुछ भी मिल रहा है , उसे प्रभु की कृपा और प्रसाद मानें । भोग लगाकर जो प्रसाद बांटा जाता है , उसमें भगवान का सूक्ष्मांश आस्वादित होने के कारण उसका स्वाद अपूर्व व दिव्य हो जाता है । इसकी अल्प मात्रा के सेवन से ही अपूर्व रस मिलता है । मिष्ठान का आशय यह भी है कि हमारी वाणी , व्यवहार . व्यक्तित्व , कृतित्व , सबमें मिठास , मधुरता आए , क्योंकि इससे प्रभु प्रसन्न होते हैं । आमतौर पर प्रसाद का तात्पर्य होता है जो बिना मांगे मिले , क्योंकि प्रसाद बांटने वाला स्वयं ही हाथ बढाकर देता है । इसीलिए भगवान के नाम पर बांटे जाने वाले पदार्थ का नाम प्रसाद रखा गया है ।
ताम्बूल व दक्षिणा :- पान - सुपारी और दक्षिणा ऐसी वस्तुएं हैं , जिनके बिना पूजा संपन्न नहीं हो सकती । पूजा में पान और सुपारी का योग नारियल की तरह उत्तर - दक्षिण की एकता का प्रतीक है । पूजा में यह उसी प्रकार श्रेष्ठ माना गया है , जिस प्रकार स्वागत में सुपारीयुक्त पान प्रस्तुत किया जाता है । यह सम्मानजनक माना जाता है । भक्त के अंत : करण में बैठे भगवान की प्रतिमा के समक्ष वह सब कुछ अर्पित करता है , जो सम्मान और समर्पण का सूचक हो । चूंकि पान और सुपारी के वृक्ष दिव्य हैं , इसीलिए सभी देवताओं को प्रिय हैं । दक्षिणा दो कारणों से अर्पित की जाती है
(१) यदि पूजन सामग्री में किसी भी प्रकार से कोई कमी रह गयी हो तो उसकी पूर्ती के भाव में
(२) जब कभी हमारे घर कोई व्यक्ति आमंत्रण पर प्रथम बार भोजन इत्यादि करता है तो उन्हें हम भोजनोपरांत तिलक आदि करके दक्षिणा अवश्य देते हैं इसलिए भी दक्षिणा चढाने का महत्व है !
(१) यदि पूजन सामग्री में किसी भी प्रकार से कोई कमी रह गयी हो तो उसकी पूर्ती के भाव में
(२) जब कभी हमारे घर कोई व्यक्ति आमंत्रण पर प्रथम बार भोजन इत्यादि करता है तो उन्हें हम भोजनोपरांत तिलक आदि करके दक्षिणा अवश्य देते हैं इसलिए भी दक्षिणा चढाने का महत्व है !
प्रार्थना :- प्रार्थना के माध्यम से हम ईश्वर से यह निवेदन करते हैं की हे कृपा निधान यदि हमारी भक्ति, श्रद्धा, भावना में कंही भी कोई त्रुटी रह गयी हो तो हमे अज्ञान समझ कर माफ़ कर देना एवं बुद्धि देना की आगे हमसे फिर कभी वैसे भूल ना हो एवं हमारा मन आपके श्री चरणों में सर्वदा के लिए रम जाये !
आशा करता हूं आपको मेरा यह ब्लॉग पसंद आया होगा यदि इसमें किसी भी प्रकार से कोई त्रुटि पाई जाती है तो दुर्गा भवानी ज्योतिष केंद्र की ओर से मैं जितेंद्र सकलानी आपसे क्षमा याचना करता हूं एवं यदि आप इस विषय में कुछ और अधिक जानते हैं और हमारे साथ यदि उस जानकारी साझा करना चाहें तो आप e-mail के माध्यम से या कमेंट बॉक्स में कमेंट के माध्यम से हमे बता सकते हैं हम आपकी उस जानकारी को अवश्य ही अपने इस जानकारी में आपके नाम सहित जोड़ेंगे
हमारा ईमेल एड्रेस है:------ www.durgabhawani9634@gmail.com
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