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जून, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ब्रह्ममुहूर्त में उठने का निर्देश क्यों ?

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रात्रि के अन्तिम प्रहर का तीसरा भाग ब्रह्ममुहूर्त कहलाता है । आयुर्वेद के अनुसार प्रात: 4 बजे से 5.30 बजे तक का समय ब्रह्ममुहूर्त कहलाता है ।                ब्रह्ममुहूर्त शब्द ब्रह्मी से बना है । शास्त्रों में ब्रह्मीं ज्ञान की देवी सरस्वती को कहा गया है । यही कारण है कि प्राचीन गुरुकुलों में आचार्य ब्रह्ममुहूर्त में ही अपने शिष्यों को वेदों का अध्ययन कराते थे । आज भी विश्व के प्रसिद्ध विद्वान , विचारक और साधक ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने दैनिक क्रिया - कलापों को करते हैं ।  ऋग्वेद ( 1/125/1 ) में कहा गया है-  प्रातारत्नं प्रातरित्वा दधाति तं चिकित्वान्प्रतिगृह्यानिधत्ते ।  तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचेत सुवीरः ॥  अर्थात् ब्रह्ममुहूर्त में उठने वाला व्यक्ति उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त करता है । अत : बुद्धिमान व्यक्ति इस अमूल्य समय को व्यर्थ नहीं करते । ब्रह्ममुहूर्त में उठने वाला व्यक्ति सुखी , स्वस्थ , पुष्ट , बलवान , वीर और दीर्घायु होता है । अथर्ववेद ( 7/14/2 ) में कहा गया है  उद्यन्त्सूर्य इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आ यदे ।  अर्थात् जो व्यक्ति सूर्योदय तक भी नहीं उठते , उनक

माला में मनके 108 ही क्यों होते हैं ?

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नमस्कार मित्रों ,                         मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए  वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर.... आप सभी लोगों ने अपने जीवन काल में कभी ना कभी जप तो किया ही होगा और जिन्होंने जप नहीं किया है उन्होंने जप होते हुए देखा तो अवश्य ही होगा जिन्होंने जप होते हुए नहीं देखा उन्होंने अपने जीवन काल में माला को तो अवश्य ही देखा होगा और गौर किया होगा की माला में 108 दाने होते हैं जिन्हें मनके कहा जाता है परंतु क्या आपने कभी सोचा है की माला में 108 मनके ही क्यों होते हैं ? तो आइए जानते हैं आपके इस प्रश्न का उत्तर इस ब्लॉग के माध्यम से- माला में मनकों के 108 ही होने के संदर्भ में अनेक मान्यताएं हैं । योग चूड़ामणि उपनिषद् में कहा गया है- षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकं विंशति ।  एतत् संख्यान्तितं मंत्र जीवो जपति सर्वदा ।।  अर्थात् प्राणी चौबीस घण्टों में 21,600 बार श्वास लेता है । चौबीस घंटे में से बारह घंटे दिनचर्या में व्यतीत हो जाते हैं , तब शेष बारह घंटे परमात्मा के जप के लि

देवी देवताओं को पूजा पाठ में नारियल क्यों चढ़ाया जाता है ? /Why are coconut offered to Gods and Goddesses in worship ?

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नमस्कार मित्रों ,                         मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए  वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर.... मित्रों यदि आप कभी कंही किसी भी हिन्दू मंदिर में दर्शन करने गए होंगे तो आपने एक चीज पर जरूर गौर किया होगा की वंहा उस मंदिर में प्रसाद के तौर पर चढाने के लिए नारियल अवश्य ही मिला होगा ! पर क्या हिन्दू मंदिर में उस नारियल चढाने की परम्परा को देख कर आपके मन में भी कभी यह ख्याल आया है की आखिर मंदिरों में देवी देवताओं को पूजा पाठ में नारियल क्यों चढ़ाया जाता है ?  अगर आपके मन में भी आया है यह सवाल तो जवाब लेकर मैं उपस्थित हूँ आइये जानते हैं - प्रायः सभी देवी - देवताओं को नारियल चढ़ाने की परम्परा है । कलश पूजन में नारियल पर रोली की छींटे देकर कलश मुख पर रखा जाता है । इसे मंगलसूचक , समृद्धिदायी व सम्मान सूचक माना गया है । नारियल भगवान शिव का परमप्रिय फल माना जाता है । इसमें बनी तीन आंखों की आकृति को त्रिनेत्र का प्रतीक माना जाता है ।  तन्त्र शास्त्र के अनुसार नारियल की भेंट को

चार युग_और_उनकी विशेषताएं

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नमस्कार मित्रों ,                         मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए  वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर.... आज के आधुनिक युग में आपने बहुत बार सनातन धर्म की चर्चा को सुना होगा एवं उस चर्चा के दौरान जाना होगा कि चार प्रकार के युग होते हैं और उन्हीं युगों में यह कलयुग चल रहा है कलयुग में पाप की वृद्धि होती है एवं लोग ईश्वर पर आस्था रखना कम कर देते हैं परंतु क्या आपने कभी सोचा है कि जब सतयुग रहा होगा या अन्य कोई युग रहा होगा तो उस समय मानव जीवन किस प्रकार का होता होगा? वह युग कितने वर्ष के होते होंगे? उस समय मनुष्य की आयु कितनी होती होगी? आदि आदि।                   मेरे दिमाग में तो यह प्रश्न बार-बार ही आते हैं और मुझे आशा है कि आप के मस्तिष्क में भी यह प्रश्न कभी ना कभी तो जरूर आते होंगे । पहले के राजा महाराजा लोग सोने चांदी के बर्तनों में खाना खाया करते थे ऐसे सुनने को मिलता है तो आखिर इस चीज का क्या कारण है कि उन्हें इन बर्तनों में खाना खाना पड़ता था और क्यों वह प्रचलन अब समा

शुभ कर्म पूर्वाभिमुख होकर क्यों किए जाते हैं ?

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सूर्योदय पूर्व दिशा में होता है और उदित होते सूर्य की किरणों का मानव पर प्रभाव निश्चय ही पड़ता है । इसका वैज्ञानिक महत्व भी है । अर्थवेद ( 17/1/30 ) में कहा गया है कि उद्यन्त्सूर्योनुदतां मृत्युपाशान्। अर्थात् उदित होते सूर्य में मृत्यु के सभी कारणों विकारादि को नष्ट करने की क्षमता है ।  अथर्ववेद ( 5/30/15 ) में आया है कि सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्यो रुदायच्छतु रश्मिभिः । अर्थात् मृत्यु के पाश को काटने के लिए सूर्य के प्रकाश से सम्पर्क बनाओ । अथर्ववेद ( 8/14 ) में आया है कि मृत्योः पड्वीशं अवमुंचमानः । माच्छित्था आत्माल्लोकादग्नेः सूर्यस्य संदृशः ।। अर्थात् सूर्य  के प्रकाश में रहना अमृतलोक में रहने के समान है । सूर्य को साक्षात् नारायण का प्रतीक माना गया है । सूर्य ही ब्रह्मा के समान एकमात्र ऐसे देव हैं , जिनके पूजन - अर्चन का प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं । सूर्योपनिषद् के अनुसार सभी देव , गन्धर्व एवं ऋषि - मुनि सूर्य की किरणों में निवास करते हैं । समस्त पुण्य , सत्य और सदाचार में सूर्य का ही अंश माना गया है । इसी कारण सूर्य की किरणों और उनके प्रभाव की प्राप

गंगा नदी अति पावन क्यों हैं ?

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नमस्कार मित्रों ,                         मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए  वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर.... आपने अपने बड़े बुजुर्गों को कई बार कहते सुना होगा की वह किसी पवित्र तीर्थ में जाकर गंगा स्नान करके आना चाहते है या अन्य जगह आपको सुनने को मिला होगा की गंगा नदी बड़ी ही पावन नदी हैं क्यूँ की गंगा नदी को भारत वर्ष में ही नहीं अपितु समस्त संसार में बड़ा ही पवित्र मन गया हैं परन्तु क्या आपने कभी सोचा है की ऐसा क्यूँ ? तो आपके इस प्रश्न का उत्तर लेकर मैं पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ अपने ब्लॉग के माध्यम से      भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता में कहा है कि स्रोतसामस्मि जाह्नवी अर्थात् जल स्रोतों में मैं ही जाह्नवी ( गंगा ) हूँ । इस प्रकार गंगा श्रीहरि का ही एक स्वरूप है ।     शास्त्रों में कहा गया है कि-  औषधि : जाह्नवी तोयं वैद्यो नारायणो हरि .  अर्थात् समस्त आध्यात्मिक रोगों की औषधि गंगा जल है और इन रोगों से ग्रस्त रोगियों के चिकित्सक श्रीहरि ( नारायण ) हैं । गंगाजी की महत्

हनुमान जी को सिन्दूर क्यों चढाते हैं ?

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नमस्कार मित्रों ,                         मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए  वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर.... आप में से बहुत से लोग हनुमान बाबा को चोला चढ़ाने जरूर जाते हैं परंतु क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर हनुमान जी को सिंदूर क्यों चढ़ाया जाता है?  ऐसी किस घटना से इसका संबंध हो सकता है जिसके कारण हनुमान जी को सिंदूर इतना प्रिय हो गया?  आपके इन्हीं प्रश्नों का उत्तर लेकर आज मैं आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत हुआ हूं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से तो आइए जानते हैं- अद्भुत रामायण में वर्णित एक कथा के अनुसार मंगलवार के दिन प्रातः हनुमान जी को भूख लगने पर वे माता सीता के निकट पहुंचे तो माता की मांग में सिन्दूर देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे पूछने लगे कि हे माता ! आपने अपनी मांग में यह कौन सा लाल द्रव्य लगाया है ? तब सीताजी ने कहा , " पुत्र ! मांग में लगा हुआ यह लाल द्रव्य सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक , मंगल सूचक सिन्दूर है । सुहागिन स्त्रियां इसे अपने स्वामी की दीर्घायु के लिए ज

तिलक क्यों लगाते है ?

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तिलक , त्रिपुंड्र , टीका और बिंदिया आदि का सम्बन्ध मस्तिष्क से है । इसीलिए तिलकादि मस्तक ( ललाट ) के मध्य भाग में लगाएं जाते हैं । कठोपनिषद् में तिलक लगाने के सम्बन्ध में बताया गया है कि मस्तक के ठीक मध्य एक प्रमुख नाड़ी सुषुम्ना है ।         इसी नाड़ी से ऊर्ध्वगतीय मोक्ष मार्ग निकलता है । अन्य नाड़ियां निकलने के बाद प्राय : शरीर में चारों ओर फैल जाती हैं , जबकि सुषुम्ना का मार्ग ऊर्ध्व की ओर ही रहता है । प्रत्येक व्यक्ति के मस्तक पर सुषुम्ना नाड़ी का ऊर्ध्व भाग एक गहरी रेखा के रूप में दिखाई देता है । सुषुम्ना नाड़ी को केंद्र में मानकर ही भृकुटि और ललाट के मध्य भाग में तिलक लगाया जाता है । तिलक किए बिना स्नान , होम , तप , देव - पूजन , पितृकर्म और दान आदि पुण्य कर्मों का फल भी व्यर्थ हो जाता है ।    ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मपर्व के 26 वें श्लोक में  कहा गया है-  स्नानं दानं तपो होमो देवतां पितृकार्ये च ।  तत्सर्वं निष्फलं याति ललाटे तिलकं विना ।  ब्राह्मणास्तिलकं कृत्वा कुर्यात् संध्यान् तर्पयम् ॥   स्कंद पुराण में तो यह भी बताया गया कि किस उंगली से तिलक लगाने से क्या फल मिलता है य