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सीमन्तोन्नयन संस्कार क्यों ?

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यह संस्कार गर्भ के चौथे , छठे अथवा आठवें मास में चंद्रमा के पुरुषवाची नक्षत्र पर स्थित होने पर किया जाता है , जिसका उद्देश्य गर्भपात को रोकना है । इस समय । गर्भस्थ शिशु शिक्षण योग्य बनने लगता है । उसके मन और बुद्धि में नई चेतना - शक्ति जाग्रत होने लगती है । इस समय जो सद् संस्कार डाले जाते हैं . उनका शिशु के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । इसमें कोई संदेह नहीं कि गर्भस्थ शिशु बहुत ही संवेदनशील होता है । सती मदालसा के बारे में कहा जाता है कि वह अपने बच्चे के गुण कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी , फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन , क्रिया - कलाप रहन - सहन , आहार - विहार और व्यवहार करती थी , जिससे बच्चा उसी मनोभूमि में ढल जाता था , जैसा कि वह चाहती थी । भक्त प्रहलाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवद भक्ति के उपदेश दिया करते थे , जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे । व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था । अर्जुन ने अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह बंधन की जो शिक्षा दी थी , वह सब गर्भस्थ शिश अभिमन्यु ने सीख ली थी । उसी शिक्षा के आधार प

जानिए क्या होता है पुंसवन संस्कार ?

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स्त्री में गर्भ के लक्षण स्पष्ट होने पर गर्भस्थ शिशु के उचित विकास के लिए पुंसवन संस्कार किया जाता है । स्त्री के गर्भ में प्राय: तीसरे महीने से शिशु के भौतिक शरीर का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। धर्म ग्रंथों में पुंसवन संस्कार के दो प्रमख उद्देश्य बताए गए हैं । पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और दूसरा उद्देश्य स्वस्थ , संदर तथा गुणवान संतान की प्राप्ति । पुत्र प्राप्ति के संदर्भ में स्मृति संग्रह में लिखा है – गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात् :- इस गर्भ से पुत्र ही उत्पन्न हो , इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है । मनुस्मृति 9 / 138   में कहा गया है - पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात् त्रायते पितरं सुतः   अर्थात् पुम् नामक नरक से जो रक्षा करता है , उसे ' पुत्र ' कहते हैं ।  इसीलिए नरक से बचने के लिए मनुष्य पुत्र - प्राप्ति की कामना करता है । वेद - मंत्रों की अलौकिक शक्ति में विश्वास रखकर पुंसवन संस्कार करने पर स्त्री के भावप्रधान मन में पुत्रभाव का संकल्प उत्पन्न होता है । जब तीन माह का गर्भ हो तो लगातार नौ दिन तक सुबह या रात्र