संदेश

2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सीमन्तोन्नयन संस्कार क्यों ?

चित्र
यह संस्कार गर्भ के चौथे , छठे अथवा आठवें मास में चंद्रमा के पुरुषवाची नक्षत्र पर स्थित होने पर किया जाता है , जिसका उद्देश्य गर्भपात को रोकना है । इस समय । गर्भस्थ शिशु शिक्षण योग्य बनने लगता है । उसके मन और बुद्धि में नई चेतना - शक्ति जाग्रत होने लगती है । इस समय जो सद् संस्कार डाले जाते हैं . उनका शिशु के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । इसमें कोई संदेह नहीं कि गर्भस्थ शिशु बहुत ही संवेदनशील होता है । सती मदालसा के बारे में कहा जाता है कि वह अपने बच्चे के गुण कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी , फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन , क्रिया - कलाप रहन - सहन , आहार - विहार और व्यवहार करती थी , जिससे बच्चा उसी मनोभूमि में ढल जाता था , जैसा कि वह चाहती थी । भक्त प्रहलाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवद भक्ति के उपदेश दिया करते थे , जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे । व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था । अर्जुन ने अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह बंधन की जो शिक्षा दी थी , वह सब गर्भस्थ शिश अभिमन्यु ने सीख ली थी । उसी शिक्षा के आधार प

जानिए क्या होता है पुंसवन संस्कार ?

चित्र
स्त्री में गर्भ के लक्षण स्पष्ट होने पर गर्भस्थ शिशु के उचित विकास के लिए पुंसवन संस्कार किया जाता है । स्त्री के गर्भ में प्राय: तीसरे महीने से शिशु के भौतिक शरीर का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। धर्म ग्रंथों में पुंसवन संस्कार के दो प्रमख उद्देश्य बताए गए हैं । पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और दूसरा उद्देश्य स्वस्थ , संदर तथा गुणवान संतान की प्राप्ति । पुत्र प्राप्ति के संदर्भ में स्मृति संग्रह में लिखा है – गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात् :- इस गर्भ से पुत्र ही उत्पन्न हो , इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है । मनुस्मृति 9 / 138   में कहा गया है - पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात् त्रायते पितरं सुतः   अर्थात् पुम् नामक नरक से जो रक्षा करता है , उसे ' पुत्र ' कहते हैं ।  इसीलिए नरक से बचने के लिए मनुष्य पुत्र - प्राप्ति की कामना करता है । वेद - मंत्रों की अलौकिक शक्ति में विश्वास रखकर पुंसवन संस्कार करने पर स्त्री के भावप्रधान मन में पुत्रभाव का संकल्प उत्पन्न होता है । जब तीन माह का गर्भ हो तो लगातार नौ दिन तक सुबह या रात्र

गर्भाधान संस्कार क्यों ?

चित्र
गर्भाधान संस्कार वेदों द्वारा अनुमोदित है । शिशु का भावी जीवन इसी संस्कार पर निर्भर है । इसलिए इसका बड़ा महत्व है । इस गर्भाधान संस्कार का उद्देश्य माता - पिता के शारीरिक - मानसिक दोषों से संतान को मुक्त करना है । मनुस्मृति में भी इसे बीज व क्षेत्र की शुद्धि का मुख्य कारक माना गया है । यथा- निषेकाद्वैजिकं चैनो गार्भिकञ्चापमृज्यते । क्षेत्रसंस्कार सिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम् ॥ विज्ञान के अनुसार भी गर्भाधान के समय स्त्री - पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं , उसका प्रभाव उनके रज - वीर्य पर अवश्य ही पड़ता है । अत : उस रज - वीर्य से उत्पन्न संतान में माता - पिता के वे भाव स्वतः ही दिखाई देते हैं- आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्विती । स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुत्रोऽपि तादृशः । । ( सुश्रुत संहिता शरीर 2 / 46 / 50 ) अर्थात् स्त्री और पुरुष जैसे आहार , व्यवहार तथा चेष्टा वाले होकर समागम करते हैं , उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव वाला होता है । देव वैद्य धन्वन्तरि का कहना है कि ऋतु स्नान के बाद स्त्री जैसे पुरुष का दर्शन करती है , वैसा ही पुत्र उत्पन्न होता

संस्कारों के भेद

चित्र
संस्कारों के भेद वर्णन संस्कार कितने हैं ? इस संदर्भ में स्मतिकारों की अलग - अलग राय है । गौतम स्मृति में महर्षि गौतम ने संस्कारों की संख्या 40 बताई है । यथा - ' चत्वारिंशत्संस्कारे: संस्कृत: । ' इसके अतिरिक्त कहीं - कहीं संस्कारों की संख्या 48 भी मानी गई है । महर्षि अंगिरा ने संस्कारों की संख्या 25 बताई है जबकि महर्षि वेदव्यास संस्कारों की संख्या 16 निश्चित की है । ' दस कर्म पद्धति की '   में संस्कारों की संख्या मात्र 10   ही बताई गई है । लेकिन सर्वमान्यता महर्षि वेदव्यास रचित स्मृति ग्रंथ ( व्यास   स्मृति 1 / 13 - 15 ) में वर्णित संस्कारों को ही मिली है । यथा- गर्भाधानं पुंसवन सीमंतो जातकर्म च । नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया ।। कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधिः । केशांतं स्नानमुद्धाहो विवाहाग्नि परिग्रहः ।। त्रेताग्नि संग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः ।। अर्थात् - गर्भाधान , पुंसवन , सीमंतोन्नयन , जातकर्म , नामकरण , निष्क्रमण , अन्नप्राशन । चूडाकर्म , कर्णवेध , यज्ञोपवीत , वेदारंभ , केशांत , समावर्तन , विवाह , आवसथ्

जानिए करवा चौथ पर क्यों करते हैं चंद्रमा का पूजन?

चित्र
मन का देवता होने के कारण चंद्रमा मन की चंचलता , स्थिरता और प्रसन्नता को नियन्त्रित करता है । मस्तक पर भौंहों के मध्य भाग को चन्द्रमा का स्थान कहा जाता है । चन्द्रमा की प्रसन्नार्थ यहां चन्दन , रोली आदि का टीका लगाया जाता है और स्त्रियां बिन्दी लगाती हैं । करवा चौथ को चन्द्रमा की कृपा प्राप्ति हेत पहले दिन में उपवास रखा जाता है और फिर रात्रि में जब चन्द्रमा उदय हो जाता है , तब अर्घ्य देकर विधिवत् उसका पूजन किया जाता है । इसके बाद ही सौभाग्यवती स्त्रियां अन्न - जल ग्रहण करती हैं । करवा चौथ के इस व्रत को मानने के पीछे धन - मान , सौभाग्य और पति की हर संकट से रक्षा मुख्य कारण माने जाते हैं । छांदोग्योपनिषद् के चौथे प्रपाठक के बारहवे खण्ड में कहा गया है कि चन्द्रमा म पुरुष रूप ब्रह्म का भाव रखकर जो इसकी उपासना करता है वह कष्ट रहित होता है । साथ ही दीर्घायु प्राप्त करता है । हठयोग व तंत्रशास्त्र में चन्द्रमा की काफी महिमा गाई गई है । शिव के शीश पर अर्द्ध - चन्द्र शोभित रहता है । अर्द्धचन्द्र को आशा का प्रतीक मानकर पूजा जाता है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार चन्द्रमा का विवाह दक्

जानिए क्या है इस वर्ष 2020 में चैत्र नवरात्रों में घटस्थापन का शुभ मुहूर्त ?

चित्र
प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी माता जगदम्बा के नौ रूपों की उपासना का शुभारम्भ होने जा रहा है। प्रत्येक वर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नूतन संवत्सर का प्रारंभ होता है और इसी दिन माता के नवरात्रि भी प्रारंभ होते हैं इस साल चैत्र नवरात्र 25 मार्च से शुरू हो रहे हैं। उदयकालीन नवमी तिथि 02 अप्रैल की है। इन नौ दिनों मां के नौ रुपों की पूजा की जाती है। ऐसे में शुभ मुहूर्त में कलश स्थापना करना अच्छा रहता है। यूं तो साल में दो बार नवरात्र आते हैं लेकिन दोनों ही नवरात्र का महत्व और पूजा विधि अलग है। परंतु इस वर्ष के नवरात्रे कुछ विशेष हैं इस बार कि नवरात्री में तीन सर्वार्थ सिद्धि, दो गुरु योग और एक गुरु पुष्य योग का संयोग बन रहा है । इस बार अष्टमी तिथि दिनांक 01 अप्रैल 2020 में 27:42 तक रहेगी अर्थात् दिनांक 02 अप्रैल 2020 को प्रात: 03:42 तक उसके बाद नवमी तिथि लग जाएगी इसीलिए इस बार अष्टमी एवम् नवमी का व्रत पूर्ण रूप से अलग अलग रखा जायेगा। दुर्गा भवानी ज्योतिष केंद्र के माध्यम से ज्योतिषाचार्य जितेंद्र सकलानी जी द्वारा वाणी भूषण पंचांग के अनुसा

जानिए श्राद्ध पक्ष में पितरों से जुड़ी धारणाएं एवं कुछ विशेष बातें ।

चित्र
श्राद्ध पक्ष को लेकर लोगों के मन में आम तौर पर यह धारणा बनी हुई है कि यह अशुभ समय होता है और इस दौरान कोई भी नया काम करने या फिर कोई भी नई चीज खरीदना शुभ नहीं माना जाता। ऐसा करने से पितृगण नाराज हो जाते हैं। यही वजह है कि इस धारणा के कई व्‍यापार और उद्योग धंधे पितृ पक्ष के दिनों में मंदे पड़ जाते हैं। वहीं शास्‍त्रों में भी इस बात का उल्‍लेख कहीं नहीं मिलता है कि पितृ पक्ष में खरीदारी करने से अशुभ परिणाम प्राप्‍त होते हैं। जानते हैं पितृ पक्ष को लेकर क्‍या हैं मान्‍यताएं और क्‍या कहते हैं विद्वान… 1 अशुभ मानने की वजह कुछ विद्वानों का मानना है कि पितृ पक्ष में हमारे पूर्वज धरती का रुख करते हैं। ऐसे में हमें उनकी सेवा में और श्राद्ध कर्म में मन लगाना चाहिए। सेवा करने की बजाए यदि हम नई वस्‍तु की ओर ध्‍यान लगाएं तो हमारे पितृ आहत हो सकते हैं। यही वजह है कि पितृ पक्ष में नई वस्‍तु नहीं खरीदी जाती। 2 पितरों का ऋण चुकाने का वक्‍त श्राद्ध पक्ष को पितरों के प्रति समर्पण भाव से देखा जाता है। 16 दिनों की अवधि को पितरों का ऋण चुकाने के नजरिए से देखा जाता है। श्राद्ध करके, तर्पण करके,

जानिए ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किस ग्रह के निमित्त नगों के अभाव में कौन सी प्रामाणिक जड़िया धारण करनी चाहिए।

चित्र
औषध | जड़ियां जड़ियों या वनस्पतियों की जड़ों को धारण करना रत्न धारण करने के समान ही लाभ देता है । किन्तु इन्हें विधिवत् श्रद्धापूर्वक तथा पवित्र होकर धारण करना चाहिए । इन नियमों की चर्चा हम आगे करेंगे । पहले किस ग्रह से किस वनस्पति का सम्बन्ध है यह जान लें 1 . सूर्य - बेल की जड़ या बेंत की जड़ । 2 . चन्द्र - खिरनी की जड़ । 3 . मंगल - अनन्त की जड़ या नाग जिह्वा । 4 . बुध - वरधारा की जड़ । 5 . बृहस्पति - केले की जड़ । 6 . शुक्र - अरंडी या सरपोंखा की जड़ । 7. शनि - बिच्छू - बूटी की जड़ । 8 . राहु - सफेद चन्दन की जड़ । 9 . केतु - अश्वगंध की जड़ । 10 . नवग्रह पीड़ा में - काले धतूरे की जड़ । कब लाएं ? इन समस्त जड़ों को रवि पुष्ययोग में लाना चाहिए । यदि ऐसा संभव न हो पाए तो जिस ग्रह से सम्बन्धित जड़ को ला रहे हैं उसी ग्रह से सम्बन्धित दिन में लाएं । नवग्रह शांति के लिए जड़ लानी हो तो उसका दिन मंगलवार ही होगा । राहु व केतु के लिए शनि या बुधवार ही होगा । निमंत्रण विधिः जिस वनस्पति की जड़ को उखाड़ना हो उसे एक दिन पूर्व स्नानादि से पवित्र होकर शुद्ध मन से सन

जानिए केतु के रत्न लहसुनिया की विशेषताएं।

चित्र
केतु - लहसुनिया स्वरूप व परिचयः केतु का रत्न लहसुनिया है । इसे भारत के साहित्य में वैदूर्य , विदुररत्न , राष्ट्रक तथा बिडालाक्ष आदि नामों से पुकारा गया है । इस रत्न की चमक बिल्ली की आंख की भांति होती है । अतः इसे आंग्ल भाषा में CAT ' S EYE भी कहा जाता है । इस रत्न के मध्य एक चलती - फिरती रेखा या सूत भी बिल्ली की आंख की भाति होती है । अतः इसे ' सूत्रमणि ' भी कहा जाता है । यदि यह सूत न हो तो उस रन को । लहसुनिया न कहकर कर्केत कहते हैं । इसका रंग पीली हरी आभा वाला होता है । भूरा रंग लिया हुआ लहसुनिया भी होता है । पीला लहसुनिया जिसमें सीधी सफेद रेखा पड़ी है उत्तम माना गया है । 2½ सूत पड़ा लहसुनिया ( जो अतिदुर्लभ है ) सर्वश्रेष्ठ माना गया है । बिन्दुओं / धब्बों वाला , कांतिहीन , जाले वाला या खंडित लहसुनिया दोष युक्त होता है । अतः यह धारणीय नहीं है । गुण व लाभ: लहसुनिया धारण करने से हैजा , मधुमेह , विशुचिका आदि तथा श्वेतप्रदर के रोग नष्ट होते हैं । भ्रमरोग तथा पैरालाइसिस में भी पहनना लाभप्रद होता है । परीक्षाः अपने सफेद या चांदी जैसे रंग के सूत के कारण यह बांस के

जानिए राहु के रत्न गोमेद की विशेषताएं।

चित्र
राहु - गोमेद स्वरूप व परिचयः राह का रत्न गोमेद है । गोमेद को भारतीय साहित्य में गोमेदक , बाहुरत्न , भीष्म रत्न आदि नामों से पुकारा गया है । आंग्ल भाषा में इसे ( CINNAMON STONE या HESSONITE ) कहते हैं , क्योंकि इसका रंग दालचीनी जैसा होता है । कुछ  विद्वान इसे ‘ जिरकोन ' भी कहते हैं । यह गाय के मेद के ( गोरोचन ) समान , गौमूत्र के समान अथवा शहद के समान रंग वाला , चमकीला , चिकना व कुछ भारी रत्न होता है । उत्तम गोमेद गोमूत्र के रंग व जल के समान आभा देने वाला होता है । गोमेद प्राय: चांदी में ही पहना जाता है । गुण व लाभः गोमेद कफ व पित्त का नाशक , पाण्डुरोग तथा तपेदिक का नाश करने वाला , विष प्रभाव को कम करने वाला रत्न है । गोमेद के साथ माणिक , मूंगा व पुखराज निषिद्ध हैं ।  परीक्षा व उपरत्नः असली गोमेद को यदि गौमूत्र में 24 घण्टे भिगोकर रखें तो गाय के मूत्र का रंग बदल जाता है । लकड़ी के बुरादे पर घिसने से गोमेद की चमक और बढ़ जाती है । गोमेद का उपरत्न तुर्सावा / ऋतुरत्न है । धारण - विधिः धारण - विधि पूर्ववत है , किन्तु इसे शनिवार या बुधवार को , शनि या बुध की होरा में , रि

जानिए शनि ग्रह के रत्न नीलम की विशेषताएं

चित्र
शनि - नीलम स्वरूप व परिचयः शनि का रत्न नीलम है । अतः इसे शौरीरत्न भी कहते हैं । भारतीय वाङमय में नीलम को नीलमणि , नील , नीलाश्म या इन्द्रनील कहा गया है । आंग्ल भाषा में इसको BLUE SAPPHIRE कहते हैं । कछ लोग केवल ‘ सैफायर ' भी कहते हैं । यह प्रायः रॉयल ब्लू या हलके वायोलेट कलर में होता है । इनके अतिरिक्त नीलम का किसी और रंग का होना या पतीत होना नीलम का दोष है । कश्मीर में पाडर की खान का नीलम सर्वोत्तम माना जाता है । इसे ' मयुरनील ' भी कहते हैं , क्योंकि इसका रंग मोर की गर्दन से मिलता है । कहीं - कहीं लाल रंग की चमक वाला नीलम भी मिलता है । इसे ‘ खूनी नीलम ' कहते हैं । यह निम्न कोटि का रत्न है । सफेद झलक वाला नीलम ' ब्राह्मण , पीली झलक वाला शूद्र माना गया है । नीलम एक कांतिवान , चिकना व पारदर्शी रत्न है जो बिजली के प्रकाश में भी अपना रंग नहीं बदलता । नीलम की गिनती माणिक्य की भांति महारत्नों में होती है । नीलम में जाल या डोरा पड़ा हो तो उसे त्याग देना चाहिए । नीलम सदैव निर्दोष पहनना चाहिए । दोषयुक्त नीलम विभिन्न उपद्रव खड़े करता है तथा देश से निष्कासन व दरिद्रता

जानिए शुक्र ग्रह के रत्न हीरे की विशेषताएं।

चित्र
शुक्र - हीरा  स्वरूप व परिचयः  शुक्र ग्रह का रत्न हीरा है । हीरे को संस्कृत में हीरक या वज्र कहते हैं । भारतीय साहित्य में इसे अभेद्य , सायक आदि नामों से भी पुकारा गया है । आंग्ल भाषा में हीरे के लिए DIAMOND शब्द प्रयुक्त होता है । यवनों में इसे ‘ अल्माज ' भी कहते हैं । जैसा कि सभी जानते हैं कि यह समस्त रत्नों में अति कठोर तथा कार्बन का अपरूप है ( हीरे को हीरा ही काट सकता है , यह इसकी कठोरता का सही उदाहरण है । ) पौराणिक संदर्भ में हीरे की उत्पत्ति बलि दैत्य की अस्थियों से हुई है । ( दांत से मोती , रक्त से माणिक , पित्त से पन्ना , आंख से नीलम , रज से वैदूर्प , नाखून से गोमेद , मांस से मूंगा , चर्म से पुखराज आदि उत्पन्न हुए हैं । वस्तुतः रत्न पृथ्वी के विकार ही हैं । ) हीरा बहुमूल्य , पारदर्शक , कठोर , अति चमकदार , निर्मल , चिकना , सुन्दर , सूर्य किरणों का प्रसारक तथा वर्णहीन होता है तथापि कुछ हीरों में सफेद , लाल , पीली , काली , झांई भी होती है । ( रत्न - वर्ण जाति के हिसाब से ये क्रमशः ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य व शूद्र जाति के हीरे होते हैं । वैसे हीरे के तीन भेद पुरुष , स्

जानिए किन-किन राशियों पर पड़ेगा चंद्रग्रहण का कैसा प्रभाव!

चित्र
भूमण्डलीय खग्रास चंद्रग्रहण यह चंद्रग्रहण आषाढ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, शुक्रवार, दि०16/17 जुलाई 2019 को खण्डग्रास रूप में भारत में दिखाई देगा। भारतीय समयानुसार समयानुसार यह ग्रहण 16 जुलाई 2019 को रात्रि 1:37 से रात्रि 4:32 बजे के मध्य दिखाई देगा । इस ग्रहण का सूतक दिनांक 16/07/2019 को शाम 4:37 बजे से प्रारम्भ होगा । चन्द्रग्रहण का सुतक ग्रहण के स्पर्श समय से 9 घंटे पहले लगता है । ग्रहण के सूतक में बच्चों को, वृद्ध और अस्वस्थ्यजनों को छोड़कर शेष को भोजन - शयन आदि नहीं करना चाहिए ।  ग्रहण स्पर्श - 1:37 बजे रात्रि  ग्रहण मध्य 3:05 बजे रात्रि  ग्रहण मोक्ष - 4:32 बजे रात्रि  ( पूर्णकाल - 2 घंटा / 55 मिनट ) ग्रहण फल- यह चंद्रग्रहण आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार दि० 16 जुलाई 2019 उत्तराषाढा नक्षत्र के धनुरातिगत चन्द्रमा में घटित होगा । सांसारिक फल आषाढ़ मास में चंद्र ग्रहण होने से- वर्षा की स्थिति विकट रहती है । कहीं अति वर्षा व कहीं साधारण वर्षा होने से अन्न उत्पादन में कमी होती है । किसी क्षेत्र विशेष में किसी रोग विशेष का प्रकोप बढ़ने का भय , जन - धन हानि होती है ।