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मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्राणायाम आज के समय में आवश्यक क्यों है ?

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प्राणायाम के अभ्यास प्राणायाम अष्टांग योग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है जिसका शाब्दिक अर्थ है - प्राणों का आयाम । महर्षि पतंजलि के मतानुसार - तस्मिन् सति श्वास - प्रश्वासयोर्गतिर्विच्छेदः प्राणायामः         अर्थात् श्वास - प्रश्वास की गति का विच्छेद करके प्राणवायु को सीने में भरने , भीतर रोककर रखने और उसे बाहर छोड़ने का नियमन करने की क्रिया को प्राणायाम कहते हैं ।  शास्त्रकार प्राणायाम की महिमा इस प्रकार लिखते हैं - दह्यन्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।  तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ॥  अर्थात् जैसे अग्नि से तपाए हुए स्वर्ण , रजत आदि धातुओं के मल दूर हो जाते हैं , वैसे ही प्राणायाम के अनुष्ठान से इंद्रियों में आ गए दोष , विकार आदि नष्ट जाते हैं और केवल इंद्रियों के ही नहीं , बल्कि देह , प्राण , मन के विकार भी नष्ट जाते हैं तथा ये सब साधक के वश में हो जाते हैं ।  योग दर्शन के अनुसार ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् -2 / 52   प्राणायाम के अभ्यास से विवेक ( ज्ञान ) रूपी प्रकाश पर पड़ा अज्ञानरूपी आवरण हट जाता है । योगचूड़ामणि में कहा गया है कि प्राणायाम से पाप जल जाते हैं । य

पारद शिवलिंग के पूजन - दर्शन का महत्व क्यों ?

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पारद अर्थात् पारा शिव के वीर्य ( शुक्र ) से उत्पन्न माना गया है । इसीलिए शास्त्रों में इसे साक्षात् शिव - स्वरूप माना गया है और इसकी महिमा गाई गई है ।   वाग्भट्ट के विचारानुसार जो कोई पारद शिवलिंग का श्रद्धा - भक्तिपूर्वक पूजन करता है , उसे तीनों लोकों के शिवलिंगों के पूजन का फल मिलता है । इसके दर्शनमात्र से सैकड़ों अश्वमेध यज्ञ , करोड़ों गोदान एवं हजारों स्वर्ण मुद्राओं के दान का फल मिलता है । जिस घर में नित्य विधिवत् पारद शिवलिंग का पूजन होता है , वहां सुख - समृद्धि रहती है । ऋद्धि - सिद्धि वहां वास करती हैं और साक्षात् शिव वहां विराजते हैं ।  शिव महापुराण में भगवान शिव कहते हैं - लिंगकोटि सहस्रस्य यत्फलं सम्यर्चनात् ।  तत्फलं कोटिगुणितं रसलिंगार्चनाद् भवेत् ।।  ब्रह्महत्या सहस्राणि गौहत्यायाः शतानि च ।  तत्क्षणद्विलयं यान्ति रसलिंगस्य दर्शनात् ।  स्पर्शनात्प्राप्यत मुक्तिरिति सत्यं शिवोदितम् ।।  अर्थात् करोड़ों शिवलिंगों के पूजन से जिस फल की उपलब्धि होती है , उससे भी करोड़ गुना फल की प्राप्ति पारद शिवलिंग के पूजन और दर्शन से होती है । इसके दर्शन - पूजन से ब्रह्महत्या , गौहत्या दोष

शालिग्राम पूजन क्यों किया जाता है ?

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शालिग्राम नेपाल में गंडकी नदी के तल में पाया जाने वाला काले रंग का एक पत्थर है । यह चिकना और अण्डाकार होता है । इस पर शंख , चक्र , गदा अथवा पद्म बने होते हैं । कुछ शालग्राम पत्थर के ऊपर सफेद रंग की चक्राकार धारियां होती है । भगवान विष्णु के रूप में इसकी पूजा की जाती है ।  स्कंदपुराण के कार्तिक माहात्म्य में शालिग्राम के महत्त्व का वर्णन स्वयं शिव ने किया है । प्रत्येक कार्तिक मास की द्वादशी को महिलाएं तुलसी और शालिग्राम का विवाह कराती हैं और नवीन वस्त्र एवं जनेऊ अर्पित करती हैं । हिन्दू परिवारों में तुलसी और शालिग्राम के विवाह के बाद ही विवाहोत्सव आरम्भ होते हैं ।  ' पुराणों के अनुसार जिस घर शालग्राम न हो , वह घर श्मशान होता है ।  पद्मपुराण में कहा गया है कि जिस घर में शालिग्राम शिला रहती है , वह घर तीर्थी से भी अधिक श्रेष्ठ है । इसके दर्शन मात्र से ब्रह्महत्या दोष का निवारण होता है । पुराणों के अनुसार शालिग्राम की शिला की उपासना से चारों वेदों के पढ़ने और तपस्या का फल मिलता है । जो व्यक्ति नियमित रूप से शालिग्राम शिला का जल से अभिषेक करता है , वह सम्पूर्ण दान के पुण्य और पृथ्वी

पीपल वृक्ष का पूजन क्यों ?

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तैत्तरीय संहिता के अनुसार सात पवित्र वृक्षों में से पीपल भी एक है । ब्रह्मवैवर्तपुराण में पीपल की पवित्रता के संदर्भ में काफी कुछ वर्णित है । स्कंद पुराण के अनुसार पीपल की जड़ में विष्णु , तने में केशव , शाखाओं में नारायण , पत्तों में भगवान हरि और फल में सब देवताओं के साथ भगवान अच्युत का निवास है ।  मूले विष्णुः स्थितो नित्यं स्कंधे केशव एव च ।  नारायणस्तु शाखासु पत्रेषु भगवान हरिः ॥ फलेऽच्युतो संदेहः सर्व देवै समन्वितः ।  स एव विष्णुर्द्रुम एव मूर्तो महात्मभिः सेवति पुण्यमूलः ॥  यस्याश्रयः पापसहस्रहंता भवेन्नृणां कामदुघो गुणादियः ॥   ( स्कंदपुराण - नागर खंड -247 / 41-42-43 )     श्रीमद्भगवद् गीता के अनुसार अर्जुन को उपदेश देते हुए स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! वृक्षों में मैं पीपल ( अश्वत्थ ) का वृक्ष हूं । ' अश्वत्थः सर्व वृक्षाणाम् ' ( श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 10 श्लोक 26 )   पद्मपुराण के अनुसार पीपल की परिक्रमा करके प्रणाम करने से आयु बढ़ती है । पीपल के वृक्ष में जल सींचने से प्राणी को सहज ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है शनि की साढ़ेसाती और ढैया काल में प

मंदिर का निर्माण अत्यावश्यक क्यों ?

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नमस्कार मित्रों ,                         मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए  वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर.... आज कल के घटनाकर्म को देखते हुए आप लोगो को भी सुनने में आ रहा होगा की कुछ मंदबुद्धि अपने स्वछंद विचारों को ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं की वह ना केवल आस्था के उद्देश्य से अपितु धर्मभाव के न्याय से भी अनैतिक ही माना जायेगा उन मूढ मतियों का कहना है की मंदिर सर्वदा के लिए बंद हो जाने चहिए ! मंदिर बंद कर देने से भी क्या होगा वह सर्वव्यापी परमात्मा तो सभी जगह व्याप्त है ! और जिन्होंने मंदिरों के निर्मांण की नीभ रखी वो हमारे पूर्वज भक्ति और श्रद्धा में , नियमों में हमसे कई गुणा जागरूक भी थे तो उन्होंने मंदिरों का निर्मांण किया ही क्यूँ ? ऐसे ही प्रश्नों का जवाब मैंने इस ब्लॉग में अपने मतानुसार लिखा है - मंदिर एक ऐसा स्थल होता है , जहां आध्यात्मिक और धार्मिक वातावरण मिलता है तथा देवपूजा उसका लक्ष्य होता है । यहां अकेले या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में भी बैठकर शांत मन से जाप , पूज

गणेशजी को कैथ - जामुन , दूर्वा क्यों चढ़ाते हैं ! गणेशजी का वाहन मूषक ही क्यों ?

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गणेशजी के सम्बन्ध में शतमोदकप्रिय की उक्ति प्रचलित है । इस उक्ति का अर्थ है कि एक बार में सो लड्डू खा जाना गणेशजी को भाता है । उनका प्रिय व्यंजन मिष्ठान होने के कारण वे गुड़ और मोदक का अधिक सेवन करते हैं । मोदक के अभाव में गणेश पूजन भी अधूरा माना जाता है । अधिक मीठा खाने से मधुमेह रोग हो जाता है , जिसकी निवृति हेतु दूब , कैथ और जामुन उपयोगी हैं ।                इसी तरह दूर्वा ( दूब ) और हल्दी की कुछ गांठे चढ़ाने से भी गणेशजी अति प्रसन्न होते हैं । दूर्वा चढ़ाने के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा भी है कि भूमि पर एक बार अनलासुर ने काफी उत्पात मचाया । फलस्वरूप धार्मिक जन दु:खी हो गए । अनलासुर ने देवराज इन्द्र को भी कई बार हरा दिया तब सभी देवता भगवान शिव के पास गए । भगवान शिव ने बताया कि गणेशजी का पेट विशाल है अतः उस राक्षस को वही समाप्त कर सकते हैं । अर्थात् वह उसे निगल सकते हैं । देवताओं ने गणेश जी को प्रसन्न किया । फलस्वरूप गणेश अनलासुर को निगल गए ।  तत्पश्चात् गणेशजी के पेट में जलन होने लगी । सारे उपाय विफल होने पर कश्यप ऋषि ने कैलाश पर्वत पर जाकर इक्कीस दुर्वाएं एकत्र करके गणेशजी को खिला

गणेश पूजन ही सबसे पहले क्यों ?

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गणेशजी विघ्ननाशक हैं । किसी भी शुभ कार्य के आरम्भ में कार्य के निर्विघ्न सम्पन्न होने के लिए ही गणेश पूजन सर्वप्रथम किया जाता है ।  इसके अतिरिक्त भाव यह भी है कि कर्म का फल प्राप्त हो तथा लक्ष्मी की भी प्राप्ति हो । इसके बाद ही नवग्रह पूजन का विधान है ।         याज्ञवल्क्य स्मृति के आचाराध्याय -292 में वर्णित यह श्लोक इसी बात का प्रतीक है-  एवं विनायकं पूज्य ग्रहांश्चैव विधानतः ।  कर्मणां फलमाप्नोति श्रियमाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ शिव पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार एक बार सभी देवता भगवान शिव के पास गए और करबद्ध हो उनकी स्तुति कर बोले , " हे ! प्रभो समस्त देवताओं का स्वामी किसे चुना जाए ? शिव ने कहा , " हे देवताओ ! तुममें से जो भी तीन बार पृथ्वी की परिक्रमा करके सर्वप्रथम कैलाश पर्वत पर आ जाएगा , वही सभी देवताओं का स्वामी होगा और सर्वप्रथम पूजनीय भी वहीं होगा ।      " शिव की बात सुनकर सभी देवता अपने - अपने दूतुगामी वाहनों पर आरूढ़ होकर पृथ्वी की तीन परिक्रमा करने के लिए चल पड़े । गणेशजी का वाहन मूषक धीमी गति से चलता है , किन्तु गणेश जी का बुद्धि - चातुर्य कम नहीं है । वे अ

जानिये सनातन धर्म के अनुसार पूजन विधि में छुपे रहस्य

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नमस्कार मित्रों ,                         मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित बताये गए  कुछ  वाक्यों अथवा नियमों के विषय में कुछ जानकरी लेकर.... वैसे तो हम सभी अपने घर में किसी न किसी तरह से पूजा पाठ इत्यदि करते एवं करवाते ही रहते हैं परन्तु क्या आपने कभी सोचा है की हम भगवान के पूजन में जिन भी सामग्रियों का प्रयोग कर रहे हैं वास्तविकता में उसका क्या महत्व है ? जब भी कभी ब्राह्मण देवता हमारे घर आकर किसी विशेष अनुष्ठान को संपन्न कराते हैं तो उस प्रक्रिया में होने वाले पूजन का क्या महत्व है ? और आखिर क्यों किया जाता है निम्नलिखित विधि से  ही   भगवान का पूजन ?  देवपूजन में प्रयुक्त विधि  क्रमश:  है - ध्यान, अवाहन, स्थापन , प्रतिष्ठापन ,  { पाद्य -अर्घ्य-आचमन-स्नान }   दूध, दही ,घी ,शहद , शक्कर , पंचामृत ,  गंधोदक , शुद्धोदक , वस्त्र ,उपवस्त्र , जनेऊ , चन्दन ,रोली , अक्षत , पुष्प , दूर्वा , सिन्दूर ,  नानापरिमल द्रव्य . सुगन्धित द्रव्य ,  धुप , दीप , नैवेद्य , ऋतुफल ,  ताम्बूल ,दक्षिणा ,प्र