मंदिर का निर्माण अत्यावश्यक क्यों ?


नमस्कार मित्रों ,
                        मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए  वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर....

आज कल के घटनाकर्म को देखते हुए आप लोगो को भी सुनने में आ रहा होगा की कुछ मंदबुद्धि अपने स्वछंद विचारों को ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं की वह ना केवल आस्था के उद्देश्य से अपितु धर्मभाव के न्याय से भी अनैतिक ही माना जायेगा उन मूढ मतियों का कहना है की मंदिर सर्वदा के लिए बंद हो जाने चहिए ! मंदिर बंद कर देने से भी क्या होगा वह सर्वव्यापी परमात्मा तो सभी जगह व्याप्त है ! और जिन्होंने मंदिरों के निर्मांण की नीभ रखी वो हमारे पूर्वज भक्ति और श्रद्धा में , नियमों में हमसे कई गुणा जागरूक भी थे तो उन्होंने मंदिरों का निर्मांण किया ही क्यूँ ? ऐसे ही प्रश्नों का जवाब मैंने इस ब्लॉग में अपने मतानुसार लिखा है -


मंदिर एक ऐसा स्थल होता है , जहां आध्यात्मिक और धार्मिक वातावरण मिलता है तथा देवपूजा उसका लक्ष्य होता है । यहां अकेले या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में भी बैठकर शांत मन से जाप , पूजा - पाठ , आरती , भजन , मंत्र पाठ , ध्यान आदि किए जा सकते हैं । ऐसे धूप - दीप आदि सुगंधित द्रव्यों के कारण मंदिर के चारों ओर दिव्य शक्ति का संचार रहता है , जिसके कारण भूत - प्रेत और विषाणुयुक्त कीटाणुओं की शक्ति क्षीण होती है । मंदिर के वातावरण में मन की भाव - दशा प्रभु की भक्ति , पूजा , प्रार्थना उपासना के अनुकूल होती है , जिससे इन कर्म - कांडों को पूरा करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है ।


         एक बार जगद्गुरु शंकराचार्य से एक व्यक्ति ने पूछा , " आचार्यवर ! आप तो वेदांत के ज्ञाता हैं । भगवान् को आप निराकार व सर्वव्यापी मानते हैं , फिर मंदिरों की प्रदर्शनात्मक मूर्तिपूजा का समर्थन क्यों करते हैं ? " 

आचार्य बोले , " वत्स ! उस दिव्य , सर्वव्यापी चेतना का बोध सबको नहीं होता । मंदिरों में प्रात : -संध्या शंख - घंटों के नाद से दूर - दूर तक उपासना के समय का बोध कराया जाता है । घर - घर उपासना के योग्य उपयुक्त स्थल नहीं मिलते , मंदिर के संस्कारित वातावरण में कोई भी उपासना कर सकता है । नैतिकता , सदाचार और श्रद्धा के निर्झरों के रूप में मंदिर अत्यंत उपयोगी हैं । जनसाधारण के लिए ये अत्यावश्यक हैं " । 


इसी तरह मंदिर के ऊपर गुंबद बनाना ध्वनि सिद्धांत और वास्तुकला की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है । साधक देव प्रतिमाओं के सामने बैठकर पूजा - अर्चन में जो मंत्र जाप करते हैं , उनकी ध्वनि मंदिर के गुंबद से टकराकर घूमती है और ऊपर की ओर गुंबद के संकरे होते जाने के कारण केंद्रीभूत हो जाती है । गुंबद का सबसे ऊपर का मध्य भाग जहां कलश - त्रिशूल आदि लगे होते है । वह अत्यंत सकरा और बिंदु रूप होता है । यह स्थान इस प्रकार बनाया जाता है कि देव प्रतिमा का सहस्रार स्थान और गुंबद का बिंदु स्थान एक सीध में रहें ।


 मंत्र शाश्वत शब्द ब्रह्म हैं और उनमें सभी प्रकार की ईश्वरीय शक्ति होती है । अत : गुंबद से टकराकर जब मंत्र ध्वनि देवता के सहस्रार से टकराती है , तो देव प्रतिमाएं चेतन हो जाती हैं और साधक को मनोनुकूल फल प्रदान करती गुंबद हमारे ऋषि - मुनियों द्वारा खोजे गए पिरामिड संबंधी ज्ञान के प्रतिरूप भी हैं । पिरामिड सिद्धांत के गुंबद के में एक ऐसे शक्ति क्षेत्र का निर्माण किया जाता है जहां रखी वस्तुएं बहुत समय तक पृथ्वी के बाहरी प्रभाव से मुक्त होकर सुरक्षित रहती हैं । 

 आशा करता हूं आपको मेरा यह ब्लॉग पसंद आया होगा यदि इसमें किसी भी प्रकार से कोई त्रुटि पाई जाती है तो दुर्गा भवानी ज्योतिष केंद्र की ओर से मैं जितेंद्र सकलानी आपसे क्षमा याचना करता हूं एवं यदि आप इस विषय में कुछ और अधिक जानते हैं और हमारे साथ यदि उस जानकारी साझा करना चाहें तो आप e-mail के माध्यम से या कमेंट बॉक्स में कमेंट के माध्यम से हमे बता सकते हैं हम आपकी उस जानकारी  को अवश्य ही अपने इस जानकारी में आपके नाम सहित जोड़ेंगे

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