जानिए मूर्ति पूजा करना सही है या गलत ?

 नमस्कार मित्रों ,
                        मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए  वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर....



आज जिस विषय को लेकर मैं आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत हुआ हूँ वो शुरू से ही बड़ा संदेहस्पर्ध रहा है कई लोगों का मत है की मूर्ति पूजा करना सही है अपितु वंही कुछ लोगो का मत है की मूर्ति पूजन करना सही नहीं है इसका खंडन करना अनिवार्य है इसके पीछे सभी लोगों के अपने-अपने अलग-अलग मत हो सकते हैं ।

यंहा तक की महर्षि दयानंद सरस्वती जी द्वार भी मूर्ति पूजन का खंडन किया गया था यंहा उसके पीछे भी कई कारण हो सकते हैं हमारा मुद्दा आज यह कदापि नहीं है की उनका कथन सही है अपितु नहीं , बल्कि हमारा मुद्दा आज सिर्फ़ प्रमाण सहित यह जानना है की मूर्ति पूजन करना सार्थक क्यों है ?

तो आईये शरू करते हैं -

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आस्था एवं भावना को उभारने के लिए भक्त को प्रतीक रूप में मूर्ति की आवश्यकता होती ही है । साधक जब तक किसी मूर्ति अथवा एक निश्चित आकार पर अपना ध्यान एकाग्र नहीं कर लेता , तब तक उसे पूजा का लाभ नहीं मिल पाता । क्यों की उसकी भावना उस प्रतिबिम्ब से नहीं जुड़ पाती । इस तरह ध्यान की एकाग्रता के लिए ही मूर्ति की आवश्यकता होती है ।


 इस विषय में- महाभारत १२ शान्तिपर्व ३०८/४० में  कहा गया है-

स एव हृदि सर्वासु मूर्तिष्वात्मावतिष्ठते।
चेतयंश्चेतनान्नित्यं सर्वमूर्तिरमूर्तिमान्।। 

 अर्थात-मैं सभी प्राणियों के हृदय में मूर्ति रूप में या भगवान की सभी मूर्तियों में आत्मा रूप में प्रतिष्ठित हूँ।

 भगवान की मूर्ति के दर्शन कर भक्त अपने हृदय में उनके गुणों का स्मरण करता है । इससे भक्त का मन भगवान के प्रति एकाग्र हो जाता है । जब भगवान की मूर्ति भक्त के  हृदय में अंकित हो जाती है , तब किसी भी मर्ति की आवश्यकता नहीं होती । इस प्रकार मूर्ति पूजा साकार से निराकार की ओर ले जाने का एक माध्यम है ।


 वस्तुत : मूर्तिपूजा ऐसे लोगों के लिए सार्थक है जो इस विषय में मूढमति होते हैं और जो निराकार का चिंतन नहीं कर पाते ।

 इस सन्दर्भ में श्रीमद्भागवात पुराण [ स्कन्द ३ अ० २९ श्लोक २१ ] में कहा गया है-


अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा।
तं अवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम्॥

मैं आत्मारूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ , इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं । उनकी वह पूजा स्वाँगमात्र है ॥ २१ ॥

मूर्ति में सिर्फ ईश्वर की शक्ति का अधिष्ठान या प्रतिष्ठापन किया जाता है । इसलिए केवल और केवल भगवान् की प्रतिष्ठित मूर्तियों का ही पूजन किया जाना चहिये ।

अथर्ववेद ( 2 / 13 / 4 ) में इस संदर्भ में कहा गया है कि हे प्रभो ! आइए और इस पाषाण प्रतिमा में अधिष्ठित हो जाइए । आपका स्वरुप इस पाषाण प्रतिमा में अधिष्ठित हो जाए तब ही यह हमें पूर्ण फल देने में सहायक हो सकती है

वस्तुत: ध्यानोपसना की उच्चावस्था की साधना के लिए शुरुवात मूर्ति या प्रतिमा से अनिवार्य साधन है ।



 आशा करता हूं आपको मेरा यह ब्लॉग पसंद आया होगा यदि इसमें किसी भी प्रकार से कोई त्रुटि पाई जाती है तो दुर्गा भवानी ज्योतिष केंद्र की ओर से मैं जितेंद्र सकलानी आपसे क्षमा याचना करता हूं एवं यदि आप इस विषय में कुछ और अधिक जानते हैं और हमारे साथ यदि उस जानकारी साझा करना चाहें तो आप e-mail के माध्यम से या कमेंट बॉक्स में कमेंट के माध्यम से हमे बता सकते हैं हम आपकी उस जानकारी  को अवश्य ही अपने इस जानकारी में आपके नाम सहित जोड़ेंगे

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