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क्या आप जानते हैं विवाहा कितने प्रकार के होते हैं ? विवाह संस्कार क्यों किया जाता है ?

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हिंदू संस्कृति में विवाह कभी न टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक संस्कार है । यह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है , जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रियसुख भोग नहीं , बल्कि पुत्रोत्पादन , संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है ।       ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ । आजकल बहुप्रचलित और वेदमंत्रों द्वारा संपन्न होने वाले विवाहों को ब्राह्म विवाह कहते हैं । इस विवाह की धार्मिक महत्ता मनु ने इस प्रकार बताई है  दश पूर्वान् परान्वंश्यान् आत्मनं चैकविंशकम् ।  ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन् मोचये देनसः पितृन् ।  अर्थात ब्राह्म विवाह से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है । अर्थात् 10 अपने आगे की , 10 अपने पीछे की और स्वयं अपनी ।                          भविष्यपुराण में लिखा है कि जो लड़की को अलंकृत कर ब्राह्मविधि से विवाह करते हैं , वे निश्चय ही अपने सात पूर्वजों और सात वंशजों को नरक भोग से बचा लेते हैं । आश्वालायन ने तो यहां तक ल

महाकालभैरवाष्टकम् अथवा तीक्ष्णदंष्ट्रकालभैरवाष्टकम् ॥

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  ॐ महाकाल भैरवाय नम:   जलद् पटलनीलं दीप्यमानोग्रकेशं,  त्रिशिख डमरूहस्तं चन्द्रलेखावतंसं! विमल वृष निरुढं चित्रशार्दूळवास:,  विजयमनिशमीडे विक्रमोद्दण्डचण्डम्!!   सबल बल विघातं क्षेपाळैक पालम्,  बिकट कटि कराळं ह्यट्टहासं विशाळम्!   करगतकरबाळं नागयज्ञोपवीतं,  भज जन शिवरूपं भैरवं भूतनाथम्! यं यं यं यक्षरूपं दशदिशिविदितं भूमिकम्पायमानं सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुटजटा शेखरंचन्द्रबिम्बम् । दं दं दं दीर्घकायं विक्रितनख मुखं चोर्ध्वरोमं करालं पं पं पं पापनाशं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १॥   रं रं रं रक्तवर्णं, कटिकटिततनुं तीक्ष्णदंष्ट्राकरालं घं घं घं घोष घोषं घ घ घ घ घटितं घर्झरं घोरनादम् । कं कं कं कालपाशं द्रुक् द्रुक् दृढितं ज्वालितं कामदाहं तं तं तं दिव्यदेहं, प्रणामत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ २॥   लं लं लं लं वदन्तं ल ल ल ल ललितं दीर्घ जिह्वा करालं धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुट विकटमुखं भास्करं भीमरूपम् । रुं रुं रुं रूण्डमालं, रवितमनियतं ताम्रनेत्रं करालम् नं नं नं नग्नभूषं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ३॥   वं

क्या आप जानते हैं शौच - काल में कान पर जनेऊ क्यों लपेटते हैं ?

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 शौच - काल में जनेऊ ( यज्ञोपवीत ) कान पर लपेटने के सम्बन्ध में - मनुस्मृति ( 1 / 92 ) में कहा गया है ऊर्ध्व नाभेर्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः ।  तस्मान्मेध्यतमं त्वस्य मुखमक्तं स्वयम्भुवा । । अर्थात पुरुष के शरीर की नाभि से ऊपर का भाग पवित्र और नाभि से नीचे का भाग अपवित्र होता है । नाभि से नीचे का भाग मल - मूत्र धारक होने के कारण शौच काल में अपवित्र होता है । इसी कारण शौच - काल में पवित्र जनेऊ को कान पर लपेटकर रखा जाता है । अह्निककारिका   में कहा गया है--  मूत्रे तु दक्षिणे कर्णे पुरीषे वामकर्णके ।  उपवीतं सदाधार्य मैथुनेतूंपवीतिवत् । ।  अर्थात् मूत्र विसर्जन करते समय यज्ञोपवीत दाएं कान पर और शौच - काल में बाएं कान पर लपेटना चाहिए । लेकिन मैथुन काल में जनेऊ को जैसे सदा पहनते हैं , वैसे ही पहनना चाहिए ।  कूर्म पुराण ( 13 / 34 ) में कहा गया है - निधाय दक्षिणे कर्णे ब्रह्मसूत्रमुदड्मुखः । अघ्नीकुर्याच्छकृन्मूत्रं रात्रे चेद  दक्षिणामुखः । ।  अर्थात् दाएं कान पर जनेक लपेटकर दिन में उत्तराभिमुख होकर और रात में दक्षिणाभिमुख होकर ही मल - मूत्र का विसर्जन करना चाहिए

जानिए क्यों किया जाता है जनेऊ संस्कार ?

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जब मनुष्य जन्म लेता है तो वह विगत जन्मों के अनेक बुरे संस्कारों से प्रभावित रहता है । लेकिन यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा उसमें सदसंस्कारों का बीजारोपण होता है । इस प्रकार मनुष्य किसी भी जाति से सम्बद्ध हो वह द्विज कहलाता है । द्विज का तात्पर्य होता है   द्वि यानी द्वितीय ज यानि जन्म   कि यज्ञोपवीत संस्कार के बाद उसका दूसरा जन्म होना माना जाता है ।       मनुस्मृति ( 2 / 169 )  में कहा भी गया है  मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीय मौन्जीबन्धने । अर्थात् :-  मनुष्य का पहला जन्म माता के गर्भ से होता है और दूसरा जन्म यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा होता है ।  मनुस्मृति ( 2 / 171 )   में ही यज्ञोपवीत के बारे में कहा गया है कि  ह्यस्मिन्यज्यते कर्म किंचिदा  मौन्जी बंधनात् ।  अर्थात् :-   यज्ञोपवीत संस्कार के बिना मनुष्य किसी भी पुण्य कर्म का अधिकारी नहीं होता । पद्मपुराण के कौशल काण्ड के अनुसार करोड़ों जन्मों के ज्ञान - अज्ञान में किए गए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से स्वत : नष्ट हो जाते हैं । ब्रह्मोपनिषद् के अनुसार यज्ञोपवीत परम पवित्र है ! प्रजापति ब्रह्मा ने इसे सबके लिए सरल किया

जानिए क्या है इस वर्ष महाशिवरात्रि का शुभ मुहूर्त ? और क्या आप जानते हैं महाशिवरात्रि से जुड़ी इन खास रहस्यों को?

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  महाशिवरात्रि का क्या अर्थ है ? हर चंद्र मास का चौदहवाँ दिन अथवा अमावस्या से पूर्व का एक दिन शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। एक कैलेंडर वर्ष में आने वाली सभी शिवरात्रियों में से, महाशिवरात्रि , को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, जो फरवरी-मार्च माह में आती है। इस रात, ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है कि मनुष्य भीतर ऊर्जा का प्राकृतिक रूप से ऊपर की और जाती है। यह एक ऐसा दिन है, जब प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद करती है। इस समय का उपयोग करने के लिए, इस परंपरा में, हम एक उत्सव मनाते हैं, जो पूरी रात चलता है। पूरी रात मनाए जाने वाले इस उत्सव में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ऊर्जाओं के प्राकृतिक प्रवाह को उमड़ने का पूरा अवसर मिले – आप अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए – निरंतर जागते रहते हैं। भक्ति पूर्वक उस रात्रि को भगवान शिव को ही समर्पित कर देने का नाम महाशिवरात्रि है। महाशिवरात्रि क्यों मनाई जाती है? पौराणिक कथाओं के मुताबिक  महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव शिवलिंग के रूप में प्रकट  हुए थे. इसी दिन पहली बार शिवलिंग की भग

क्या आप जानते हैं ? क्यों किया जाता है विद्यारंभ संस्कार।

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पूरे विश्व में जहां विद्या अध्यापन के नाम पर केवल संस्कृतियों का उत्पादन किया जा रहा था ऐसे समय में भारत वर्ष के भीतर शिक्षा की नींव रखी जा चुकी थी उस समय भारत के अंदर 16 सौ से भी अधिक गुरुकुल माने जाते थे जहां माता-पिता अपने अपने बच्चों को शिक्षा सहित संस्कारों का भी प्रतिपादन करना भली-भांति सीखाने के लिए इन्हे गुरुकुलों में भेजा करते थे। जहां से इनके जीवन की नई शुरुआत होती थी ऐसी स्थिति में जहां यह विद्या का शुभारंभ करते थे व संस्कारों को ग्रहण कर अपने घर आते थे उससे पूर्व यथा विधि जातक को ईश्वर का नाम लेकर सरस्वती की आराधना कर विद्यालय में भेज विद्या का शुभारंभ करना ही विद्यारंभ संस्कार कहलाता था। तो आइए जानते हैं  क्या होता है विद्यारंभ संस्कार इस संस्कार का उद्देश्य तत्वज्ञान की प्राप्ति कराना है । जब बालक - बालिका शिक्षा ग्रहण करने योग्य हों तब यह संस्कार किया जाता है । मंगल के देवता गणेश और कला की देवी सरस्वती को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में होती है शास्त्र वचन है कि जिसे विद्या नहीं आती उसे धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष के फलों की प्राप्