जानिए क्यों किया जाता है अन्नप्राशन संस्कार ?
अन्नप्राशन संस्कार के बारे में कहा गया है--
अर्थात् माता के गर्भ में रहते समय शिशु में मलिन भोजन के शुद्धिकरण और शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया का प्रचलन प्राचीन काल से है जो एक संस्कार के रूप में किया जाता है उसे ही अन्नप्राशन संस्कार कहते हैं ।
जब ' शिशु छ: - सात माह का हो चुका होता है , उस समय तक उसकी क्रिया प्रबल हो जाती है । दांत भी निकलने लगते हैं । इस अवस्था में शिशु जिस प्रकार का अन्न खाता है , उसी के अनुरूप उसका तन - मन बनता है ।
छांदोग्य उपनिषद् 7 / 26 / 2 में कहा गया है---
शास्त्रों के अनुसार बालक का ६-८-१०-१२वें मास में तथा बालिका का ५-७-९वें मास में अन्नप्राशन करना चाहिये !
शास्त्रों के अनुसार अन्नप्राशन संस्कार में शुभ मुहर्त में जौ और चावल बनाकर देवताओं को अर्पण करके माता - पिता चांदी की चम्मच से शिशु को चटाते हैं !
इसके साथ ही अथर्ववेद 8 / 2 / 18 के निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण किया जाता है-
अर्थात् हे शिशु ! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक और पुष्टिकारी हों । ये दोनों यक्ष्मानाशक और देवान्न होने से पाप को नष्ट करने वाले हैं ।
जैसा अन्न , वैसा मन की उक्ति से सम्बन्धित एक रोचक प्रसंग महाभारत में भी आता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् पितामह भीष्म बाणों की शय्या पर लेटे हुए पाण्डवों को उपदेश दे रहे थे तभी द्रोपदी खिलखिलाकर हँस पड़ी । उस समय पितामह को बड़ा आश्चर्य हुआ ।
उन्होंने द्रोपदी से इस तरह हँसने का कारण पूछा तो द्रोपदी बोली , " पितामह ! आप इस समय धर्मोपदेश दे रहे हैं , किन्तु जब कौरवों की सभा में दुशासन मुझे अपमानित कर रहा था और मैंने आपको सहायता के लिए पुकारा था , तब आपका धर्म कहाँ चला गया था । यही सोचकर मुझे हँसी आ गई । " द्रोपदी की बात सुनकर पितामह भीष्म बोले , " बेटी ! उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खाता था । उसका अन्न खाने से मेरे तन - मन पर भी उसका प्रभाव पड़ा अब अर्जुन के बाणों ने मेरे शरीर से वह दूषित रक्त बहा दिया है । अतः अब मेरा तन और मन पूर्णतया शुद्ध हो गया है । यही कारण है कि अब मैं वही कह रहा हूँ जो धर्मानुकूल है ।"
अन्नाशनान्मातगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति ।
अर्थात् माता के गर्भ में रहते समय शिशु में मलिन भोजन के शुद्धिकरण और शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया का प्रचलन प्राचीन काल से है जो एक संस्कार के रूप में किया जाता है उसे ही अन्नप्राशन संस्कार कहते हैं ।
जब ' शिशु छ: - सात माह का हो चुका होता है , उस समय तक उसकी क्रिया प्रबल हो जाती है । दांत भी निकलने लगते हैं । इस अवस्था में शिशु जिस प्रकार का अन्न खाता है , उसी के अनुरूप उसका तन - मन बनता है ।
छांदोग्य उपनिषद् 7 / 26 / 2 में कहा गया है---
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः ।
अर्थात् शुद्ध आहार के सेवन से शरीर में सत्व गुणों की वृद्धि होती है ।
शास्त्रों के अनुसार बालक का ६-८-१०-१२वें मास में तथा बालिका का ५-७-९वें मास में अन्नप्राशन करना चाहिये !
शास्त्रों के अनुसार अन्नप्राशन संस्कार में शुभ मुहर्त में जौ और चावल बनाकर देवताओं को अर्पण करके माता - पिता चांदी की चम्मच से शिशु को चटाते हैं !
इसके साथ ही अथर्ववेद 8 / 2 / 18 के निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण किया जाता है-
शिवौ ते स्तां व्रीहयवाव बलासावदोमधो ।
एतौ यक्ष्मं विबाधेते एतौ मुंचतो अंहसः । ।
अर्थात् हे शिशु ! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक और पुष्टिकारी हों । ये दोनों यक्ष्मानाशक और देवान्न होने से पाप को नष्ट करने वाले हैं ।
जैसा अन्न , वैसा मन की उक्ति से सम्बन्धित एक रोचक प्रसंग महाभारत में भी आता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् पितामह भीष्म बाणों की शय्या पर लेटे हुए पाण्डवों को उपदेश दे रहे थे तभी द्रोपदी खिलखिलाकर हँस पड़ी । उस समय पितामह को बड़ा आश्चर्य हुआ ।
उन्होंने द्रोपदी से इस तरह हँसने का कारण पूछा तो द्रोपदी बोली , " पितामह ! आप इस समय धर्मोपदेश दे रहे हैं , किन्तु जब कौरवों की सभा में दुशासन मुझे अपमानित कर रहा था और मैंने आपको सहायता के लिए पुकारा था , तब आपका धर्म कहाँ चला गया था । यही सोचकर मुझे हँसी आ गई । " द्रोपदी की बात सुनकर पितामह भीष्म बोले , " बेटी ! उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खाता था । उसका अन्न खाने से मेरे तन - मन पर भी उसका प्रभाव पड़ा अब अर्जुन के बाणों ने मेरे शरीर से वह दूषित रक्त बहा दिया है । अतः अब मेरा तन और मन पूर्णतया शुद्ध हो गया है । यही कारण है कि अब मैं वही कह रहा हूँ जो धर्मानुकूल है ।"
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