जानिए पूजा पाठ से पूर्व स्नान करना अनिवार्य क्यों ?



देवपूजन कर्म से पूर्व स्नान शारीरिक पवित्रता के लिए किया जाता है । नित्य स्नान न करने वाले व्यक्ति के नित्य कर्म निष्फल रहते हैं ।

 इस संबंध में कूर्म पुराण ( 18 / 6 - 9 ) में कहा गया है कि -दृष्ट और अदृष्ट फल प्रदान करने वाला प्रात : कालीन शुभ स्नान प्रशंसनीय है । नित्य प्रात : काल स्नान करने से ही ऋषित्व है ।

 सुप्त अवस्था में व्यक्ति के मुख से निरंतर लार बहती रहती है । अतः प्रात : स्नान किए बिना कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए । प्रात : कालीन स्नान करने से निस्संदेह अलक्ष्मी , कालकर्णी , बुरे स्वप्न और बुरे विचार तथा अन्य पाप नष्ट हो जाते हैं । स्नान किए बिना मनुष्य को कोई भी कर्म करने का निर्देश नहीं दिया गया । अत : पूजा आदि करने से पहले स्नान करना आवश्यक है ।


स्कंद पुराण के काशीखण्ड अध्याय - 6  में कहा गया है -
न जलाप्लुत देहस्य स्नानमित्यभिधीयते । 
स स्नातो यो दमस्नातः शुचिः शुद्धनोमलः ॥

 अर्थात् - शरीर को जल में डुबो लेने से ही स्नान नहीं हो जाता । जिस मनुष्य ने मन और इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया , वास्तव में उसने ही स्नान किया है ।  जिस मनुष्य ने अपने मन को धो डाला वहीं पवित्र है ।

श्रीमद्भगवद गीता के अनुसार मनुष्य किस प्रकार स्वयं को पवित्र करें इस बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि- भगवान के भक्तों के तन , मन , बुद्धि , इन्द्रिय आदि  आचरण इतने पवित्र हो जाते हैं कि उनके दर्शन स्पर्श और उनसे वार्तालाप करने से ही अन्य लोग भी पवित्र हो जाते हैं । ऐसे भक्तजन जहां भी निवास करते वहां सब कुछ पवित्र हो जाता है ।

 यज्ञ, पूजन - हवन आदि के लिए स्नान का निर्देश देते हुए कहा गया है कि मनुष्य का नौ द्वार वाला यह शरीर अति मलिन है । इन नौ द्वारों से प्रतिदिन मल निष्कासित होता रहता है । इसी कारण शरीर दूषित हो जाता है । यह मल स्नान से दूर हो जाता और शरीर में निर्मलता आ जाती है ।


भविष्य पुराण के उत्तर खण्ड ( 123 / 1 - 3 ) में कहा गया है-

 नैर्मल्य भावशुद्धिश्च विना स्नानं न युज्यते ।
 तस्मात् कायविशुद्धयर्थ स्नानमादौ विधीयते ।। 
अनुद्धतैरुद्धतैर्वा जलैः स्नानं समाचरेत् ।

 अर्थात् बिना स्नान किए मन में निर्मलता और भावों में शुद्धि नहीं आती । इसी कारण शरीर की शुद्धि के लिए सर्वप्रथम स्नान करने का ही विधान बनाया गया है । नदी आदि के जल में प्रवेश करके तथा कुएं आदि के जल को बाहर निकालकर स्नान करना चाहिए ।


विश्वामित्र स्मृति ( 1 / 86 ) में कहा गया है-

 गुणा दश स्नानकृतो हि पुंसो रूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।
आयुष्यमारोग्यम् लोलुपत्वं दुःस्वप्नाशं च तपश्च मेधा ।। 

अर्थात् प्रतिदिन प्रात : काल विधिपूर्वक स्नान करने वाले मनुष्य को रूप , तेज , बल , पवित्रता , आयु , स्वास्थ्य , निर्लोभता , तप और प्रखर बुद्धि की प्राप्ति होती है । उसके दुःस्वप्नों का भी नाश होता है ।


 देवी भागवत पुराण ( रुद्राक्ष माहात्म्य / 7 ) में कहा गया है कि-

अस्नातस्त क्रियाः सर्वा भवन्ति विफला यतः । 
तस्मात्प्रातश्चरेत्स्नानं नित्यमेव दिने दिने ।

 अर्थात् प्रात : काल स्नान न करने वाले के दिनभर के सभी कर्म निष्फल हो जाते है । अतः प्रतिदिन प्रातः काल स्नान अवश्य करना चाहिए । कहा भी गया है कि शरीर व मन दोनों का पवित्र होना आवश्यक है । शरीर व मन की पवित्रता का स्वास्थ्य पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है ।

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