जानिए सनातन धर्मानुसार नित्य पूजा पाठ क्यों ?



श्रीमद्भगवद् गीता ( 18 / 46 ) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि  स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: अर्थात् सद्कर्म से मनुष्य भगवान की पूजा कर मुक्ति प्राप्त करता है । अपने अन्तर्मन की गहराइयों से अपने इष्टदेव के प्रति समर्पण भाव रखते हुए उसका स्मरण करना और निर्धारित पूजा सामग्री का उपयोग करना पूजा कहलाता है । पूजा में समर्पण भाव आवश्यक है ।

 पूजा करने वाला व्यक्ति अपने मन के सभी बैर , लोभ , अहंकार आदि दुर्भावों को त्यागकर सम्पूर्ण समर्पण के साथ पूजा - अर्चना करता है तो उसे शान्ति मिलती है । उसके रोग - विकार दूर हो जाते हैं ।

महर्षि वेदव्यास महाभारत के अनुशासन पर्व ( 149 / 5 - 6 ) में भगवान की पूजा के बारे में कहते हैं -

तमेव चार्चयन् नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् । 
ध्यायन् स्तुवन्नमस्यश्च यजमान स्तमेव च ।
अनादि निधनं विष्णुं सर्वलोक महेश्वरम् ।
लोकाध्यक्षं स्तुवन् नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत ॥ 

अर्थात् जो मनुष्य उस अविनाशी परम पुरुष का सदैव श्रद्धा - भक्ति के साथ पूजन - अर्चन करता है और स्तवन व नमस्कारपूर्वक उसकी उपासना करता है , वह भक्त उस अनादि , अनन्त , सभी लोकों के महेश्वर , लोकाध्यक्ष परमपिता परमात्मा की नित्य स्तुति करता हुआ सभी दु:खों से पार हो जाता है । प्रभु की पूजा - अर्चना करने वाले सत्पुरुष को प्रात : ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाना चाहिए । इसके बाद नित्य कर्मों से निवृत्त होकर ईश वंदना करनी चाहिए ।

 ऋग्वेद ( 1 / 113 / 11 ) में भी ऐसा कहा गया है-

 ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन्व्युच्छन्तीमुषसं मत्यार्स:। 
अस्माभिरु नू प्रतिचक्ष्याभूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान् ॥

अर्थात जो मनुष्य ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्य कर्मों से निवृृत्त होकर अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं , वे धर्म का आचरण करने वाले और बुद्धिमान होते हैं । जो स्त्री - पुरुष ईश्वर का ध्यान करके प्रेमपूर्वक संवाद करते हैं , वे अनेक प्रकार के सुखों को प्राप्त करते हैं ।

 पूजनादि में भगवान को पुष्प अर्पित किए जाते हैं , किन्तु परमात्मा मनुष्य के गुणरूपी पुष्पों के अर्पण से अधिक प्रसन्न होते हैं । पद्मपुराण ( 5 / 84 ) में कहा गया है कि परमात्मा को मनुष्य के गुण रूपी आठ पुष्प अधिक प्रिय हैं । ये हैं इन्द्रिय निग्रह , प्राणी मात्र पर दया भाव दिखाना , क्षमा भाव बनाए रखना , मन का निग्रह , ध्यान और सत्य, काम ओर उत्तेजना से रहित होना , प्रलोभन विरक्ति , ईशवर भक्ति !

जिस साधक कि जैसी भावना होती है  उसी के अनुरुप उसे फ़ल प्राप्त होता है ! मन में भागवान का वास नहीं होता है ! पूजा में भगवान भक्ति और प्रेमपूर्वक अपने भक्त द्वारा अर्पित किए गए द्रव्यों को सगुण रूप में ( साकार ) होकर ग्रहण करते हैं ।



  श्रीमद्भगवद् गीता ( 9 / 26 ) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं-

 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्यु पहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।।

 अर्थात् जो भक्त श्रद्धा , भक्ति और प्रेम के साथ मुझे पत्र , पुष्प , फल और जल आदि अर्पित करता है , उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेम से युक्त भक्त का अर्पित किया हुआ पत्र - पुष्प आदि में प्रकट होकर प्रेमपूर्वक ग्रहण करता हूं ।

 पूजा करने से मनोवृष्टि , पाप विमोचन , देवत्व , आत्मबल आदि फलों की प्राप्ति होती है ।



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