वानप्रस्थ आश्रम
नमस्कार मित्रों ,
मैं जितेन्द्र सकलानी एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ आप लोगो के समक्ष अपने नए ब्लॉग के साथ अपने धर्मग्रंथो पर आधारित कुछ बताये गए वाक्य, अथवा नियमो के विषय में कुछ जानकरी लेकर....
मित्रों आपने बहुत से धर्मिक ग्रंथो को पढते या टेलीकास्ट एपिसोड को देखते हुए सुना होगा की पहले के राजा महाराजा लोग या कोई भी जन सामान्य अपने राज्य कार्यों का त्याग कर एक अवस्था के बाद वानप्रस्थ की और प्रस्थान करते थे और धार्मिक ग्रंथो में भी इन चार प्रकार के आश्रम के बारे में पढने को मिलता है सर्वप्रथम ब्रहमचर्य आश्रम , गृहस्थाश्रम , वानप्रस्थ आश्रम एवं संन्यास आश्रम ,
ब्रहमचर्य आश्रम में स्पष्ट है की जातक को ब्रहमचर्य आश्रम में रहकर ब्रहमचर्य का पालन करते हुए शिक्षा दीक्षा को ग्रहण करना होता है !
गृहस्थाश्रम में आने के बाद उन्हें अपने घर गृहस्थी में रहते हुए किन-किन मर्यादाओं का पालन करते हुए निर्वाह करना है , ना केवल अपना अपितु समस्त परिवार का धर्मपरायण होकर एवं ईश्वर भक्ति में लीन रहते हुए कैसे पोषण करना है बताया जाता है
परन्तु आज हम जानेंगें की कैसे गृहस्थाश्रम, के त्याग के पश्चात व्यक्ति विशेष वानप्रस्थ आश्रम को ग्रहण करता है और इसमें क्या क्या करना अनिवार्य हैं इसके क्या नियम हैं और क्यों ?
वानप्रस्थ संस्कार का विधान क्यों ?
गृहस्थ आश्रम भोगने के बाद जब मनुष्य की आयु 50 वर्ष को पार कर जाती है , तब वानप्रस्थ संस्कार होता है । इस अवस्था में आपने गृहस्थ के उत्तरदायित्व को अपनी सन्तान को सौंपकर स्वयं को देश और समाज की सेवा के लिए अर्पित किया जाता है । सब आश्रमों में यह आश्रम महत्वपूर्ण है ।हारीत स्मृति ( 6 / 2 ) में वानप्रस्थ संस्कार के बारे में कहा गया है-------
एवं वनाश्रमे तिष्ठन् पातयश्चैव किल्विषम् ।
चतुर्थमाश्रमं गच्छेत् संन्यासविधिना द्विजः ॥
अर्थात् गृहस्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए । इससे समस्त मनोविकारों से मुक्ति मिलती है और निर्मलता आती है । बाद में यह निर्मलता संन्यास के लिए अत्यंत प्रभावी होती है ।
मनुस्मृति ( 4 / 257 ) में वानप्रस्थ के बारे में इस प्रकार वर्णित है------
महर्षि पितृदेवानां गत्वाऽऽनृण्यं यथाविधिः ।
पुत्रे सर्वं समासज्य वसेन्माध्यस्थमाश्रितः ।।
अर्थात् आयु ढलने पर पुत्र को गृहस्थ का भार सौंप देना चाहिए । इसके बाद वानप्रस्थ ग्रहण कर देव , पितर और ऋषियों का ऋण चुकाना चाहिए ।
छान्दोग्य उपनिषद् ( 3 / 16 / 5 ) के अनुसार वानप्रस्थ आश्रम का मुनि के समान जीवन 48 वर्ष की अवस्था बीत जाने के बाद आरम्भ होता है । मनुष्य की 48 वर्ष की अवस्था के बाद तीसरे सवन ( यज्ञ ) में जगती छन्द से यज्ञ किया जाता है ।
अथर्ववेद में कहा गया है कि हे पुरुष ! आत्मा को आगे ले चल और वानप्रस्थ संस्कार को ग्रहण कर । तेरी आत्मा महापुरुषों के लोक को सम्पन्न होकर प्राप्त करे और तू बड़े अज्ञानों को पार कर नित्य मानकर तीसरे सुखमय वानप्रस्थ अवस्था को प्राप्त करे ।
आर्थात स्वयं को गृहस्थ आश्रम भोगने के बाद लगे भोग विलास की आदत अभिलाषा से दूर कर स्वयं को भक्ति एवं पार ब्रहम परमेश्वर के श्री चरणों में समर्पित करने योग्य संन्यास आश्रम में प्रवेश करने योग्य बनाने का नाम ही वानप्रस्थ है !
आशा करता हूं आपको मेरा यह ब्लॉग पसंद आया होगा यदि इसमें किसी भी प्रकार से कोई त्रुटि पाई जाती है तो दुर्गा भवानी ज्योतिष केंद्र की ओर से मैं जितेंद्र सकलानी आपसे क्षमा याचना करता हूं एवं यदि आप इस विषय में कुछ और अधिक जानते हैं और हमारे साथ यदि उस जानकारी साझा करना चाहें तो आप e-mail के माध्यम से या कमेंट बॉक्स में कमेंट के माध्यम से हमे बता सकते हैं हम आपकी उस जानकारी को अवश्य ही अपने इस जानकारी में आपके नाम सहित जोड़ेंगे
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