जानिए क्यों किया जाता है जनेऊ संस्कार ?



जब मनुष्य जन्म लेता है तो वह विगत जन्मों के अनेक बुरे संस्कारों से प्रभावित रहता है । लेकिन यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा उसमें सदसंस्कारों का बीजारोपण होता है । इस प्रकार मनुष्य किसी भी जाति से सम्बद्ध हो वह द्विज कहलाता है । द्विज का तात्पर्य होता है  द्वि यानी द्वितीय यानि जन्म  कि यज्ञोपवीत संस्कार के बाद उसका दूसरा जन्म होना माना जाता है ।



      मनुस्मृति ( 2 / 169 )  में कहा भी गया है  मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीय मौन्जीबन्धने ।

अर्थात् :-  मनुष्य का पहला जन्म माता के गर्भ से होता है और दूसरा जन्म यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा होता है । 

मनुस्मृति ( 2 / 171 )  में ही यज्ञोपवीत के बारे में कहा गया है कि ह्यस्मिन्यज्यते कर्म किंचिदा मौन्जीबंधनात् । 

अर्थात् :-  यज्ञोपवीत संस्कार के बिना मनुष्य किसी भी पुण्य कर्म का अधिकारी नहीं होता ।

पद्मपुराण के कौशल काण्ड के अनुसार करोड़ों जन्मों के ज्ञान - अज्ञान में किए गए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से स्वत : नष्ट हो जाते हैं ।

ब्रह्मोपनिषद् के अनुसार यज्ञोपवीत परम पवित्र है ! प्रजापति ब्रह्मा ने इसे सबके लिए सरल किया है !  यह आयुवर्धक , स्फूर्तिदायक और बंधनों से मुक्ति का दाता है  । इसके अलावा यह पवित्रता, बल और ओज की वृद्धि करता है ।


 यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्जसहजं पुरस्तात् । 
आयुष्यमातं प्रतिमञ्चशभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः । । 

नारद संहिता के अनुसार जो द्विजादि अपने बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार नहीं करते , वे निश्चय ही अपने परोहित के साथ नरक के भागीदार होते हैं । नारद संहिता  में ही अन्यत्र कहा गया है कि यज्ञोपवीत रहित द्विज के हाथ का दिया चरणामृता मदिरा जैसा और तुलसी पत्र कर्पट जैसा होता है । ऐसे द्विज द्वारा अपने पिता के लिए किया गया पिण्डदान पितरमुख में कौए की विष्ठा के समान होता है ।

                 वेदांत रामायण के अनुसार जो द्विज यज्ञोपवीत संस्कार किए बिना मन्दबुद्धि से मन्त्रों का जप और पूजा - पाठ आदि करते हैं , उनका पूजा - पाठ एवं जप निष्फल होता है । इसके साथ ही उन्हें विपरीत फल भी भोगने पड़ते हैं ।

वस्तुतः किसी द्विज द्वारा सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार पा लेना ही यजोपवीत कहलाता है ।

पारस्कर गृह्यसूत्र ( 2 / 2 / 7 ) के अनुसार जिस प्रकार देवराज इन्द्र को देवगुरु  बृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था , ठीक उसी प्रकार आय , बल , बुद्धि और सम्पत्ति की  वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत धरण करना चाहिए । इसको धारण करना देवत्व प्राप्ति का । सूचक भी माना जाता है ।

 यज्ञोपवीत में तीन लड , नौ तार और छियानवे ही चौवे क्यों होते हैं ?
यज्ञोपवीत की त्रिगुणात्मक तीन लड , बल , वीर्य और ओज को बढ़ाने वाली है । ये वेदत्रयी ऋक , यजु और साम की रक्षा करने वाली हैं । इनसे सत् , रज और तम गुणों की वृद्धि होती है । ये तीन लड़ तीनों लोकों में यशस्वी होने की प्रतीक हैं तथा माता , पिता और आचार्य के प्रति समर्पण , कर्तव्यपालन और कर्तव्यनिष्ठा का भी बोध कराती हैं । इनसे सृष्टि के समस्त पहलुओं में व्याप्त त्रिविध धर्मों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है । ब्रह्मा , विष्णु और महेश यज्ञोपवीत धारण करने वाले द्विज की उपासना से प्रसन्न होते हैं ।

 तैत्तिरीय संहिता ( 6 / 3 / 10 / 5 ) के अनुसार  तीन लड़ों से तीन तत्वों का बोध होता है । ब्रह्मचर्य से ऋषि ऋण , यज्ञ से देव ऋण और प्रजा पालन से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है ।
सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र के अनुसार ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन लड़ों का एक सूत्र निर्मित किया और भगवान विष्णु ने ज्ञान , कर्म और उपासना से तिगुना किया । इसके बाद शिव ने गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित करके उसमें ब्रह्मगांठ लगा दी । इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और छियानवे चौवों से तैयार हुआ !

            यज्ञोपवीत के नौ तारों में नौ देवता वास करते हैं । ये देवता ओंकार (ब्रहम ), अग्नि  ( तेज ) , अनन्त ( धैर्य ) , चन्द्र ( शीतल प्रकाश ) , पितृगण ( स्नेह ) , प्रजापति (प्रजापालन ) , वायु ( स्वच्छता ) , सूर्य ( प्रताप ) और समस्त देवगण ( समदर्शन ) हैं । यज्ञोपवीत के इन नौ तारों से अभिप्राय नौ देवताओं के नौ गुणों को धारण करना भी है । इन देव के नौ गुण ब्रह्म पारायणता , तेजस्विता , धैर्यशीलता , विनम्रता , स्नेह , परोपकार  भावना , स्वच्छता , शक्ति सम्पन्नता और समदृष्टि है ।

96 चौवे लगाने का अर्थ है वेद और गायत्री मन्त्र के अभिमत को स्वीकार कर तथा यज्ञोपवीत धारण करके ही गायत्री मन्त्र का जप करना । गायत्री मन्त्र में 24 अक्षर  होते हैं और वेदों की संख्या 4 है । गायत्री मन्त्र के अक्षरों को वेदों की संख्या से गुणा करने पर 96 आता है , जोकि यज्ञोपवीत के चौवों की संख्या है ।



 सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र के अनुसार 3 गुण , 3 काल , 7 वार , 15 तिथि , 12 मास , 4 वेद , 25 तत्व  और 27 नक्षत्र हैं । इन सबका योग 96 होता है । ब्रह्म पुरुष के शरीर पर सूत्रात्मक प्राण का प्रतीक 96 चौवे का यज्ञोपवीत कन्धे से कमर तक पड़ा हुआ है । इस प्रकार यज्ञोपवीत धारण करने वाले के मन में शुद्ध विचारों का समावेश होना चाहिए । 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

महाकालभैरवाष्टकम् अथवा तीक्ष्णदंष्ट्रकालभैरवाष्टकम् ॥

व्यापार बाधाओं को दूर करने तथा व्यापार वृद्धि के ७ अचूक उपाए

शीघ्र रोग मुक्ति के ७ अचूक उपाए