क्या आप जानते हैं शौच - काल में कान पर जनेऊ क्यों लपेटते हैं ?
शौच - काल में जनेऊ ( यज्ञोपवीत ) कान पर लपेटने के सम्बन्ध में -
अर्थात पुरुष के शरीर की नाभि से ऊपर का भाग पवित्र और नाभि से नीचे का भाग अपवित्र होता है । नाभि से नीचे का भाग मल - मूत्र धारक होने के कारण शौच काल में अपवित्र होता है । इसी कारण शौच - काल में पवित्र जनेऊ को कान पर लपेटकर रखा जाता है ।
अह्निककारिका में कहा गया है--
कूर्म पुराण ( 13 / 34 ) में कहा गया है -
अर्थात् दाएं कान पर जनेक लपेटकर दिन में उत्तराभिमुख होकर और रात में दक्षिणाभिमुख होकर ही मल - मूत्र का विसर्जन करना चाहिए ।
विभिन्न धर्मशास्त्रों में दाएं कान की पवित्रता को स्वीकार किया गया है । इसी कारण दाएं कान को बंधित करके ही शौच आदि अपिवत्र कर्म करने के निर्देश दिए गए हैं ।
गोभिल गृहासूत्र ( 2 / 90 ) में दाएं कान की पवित्रता के सम्बन्ध में कहा गया है -
अर्थात् वायु , चन्द्रमा , इन्द्र , अग्नि , मित्र तथा वरुण आदि देवताओं का वास ब्राह्मण के दाएं कान में ही होता है । सांख्यायन के अनुसार ब्राहाण के दाएं कान में आदित्य , वसु , रुद्र , वायु और अग्नि देवता निवास करते हैं ।
पाराशर के मतानुसार गंगा आदि पवित्र नदियां और तीर्थ दाएं कान में निवास करते हैं । शौच के समय कान पर जनेऊ लपेटने के सम्बन्ध में आयर्वेद में कहा गया है कि दाएं कान के पास से होकर गुजरने वाली एक विशेष नाडी लोहितिका मल - मूत्र के द्वार तक पहुंचती है । इस नाड़ी पर जनेऊ लपेटने से दबाव पड़ने पर मल - मूत्रादि का निष्पादन सुगम हो जाता है ।
आयुर्वेद के अनुसार दाएं कान की नाड़ी के निकट से मूत्राशय का और बाएं कान की नाड़ी से मलाशय का सम्बन्ध है । अतः मूत्र त्याग करते समय दाए कान पर जनेका लपेटने से बहुमूत्र , प्रमेह और मधुमेह जैसे रोगों में लाभ मिलता है । इसी प्रकार बाएं कान पर जनेऊ लपेटने से बवासीर , भगंदर और कांच निकलने जैसी बीमारियों में अपेक्षित लाभ मिलता है । मल - त्याग के समय मूत्र विसर्जन भी होता है . अतः शौच जाते समय दाएं और बाएं दोनों कानों पर जनेऊ लपेटना चाहिए ।
लंदन के क्वीन एलिजाबेथ चिल्ड्रन हॉस्पिटल के भारतीय मूल के डॉक्टर एस . आर , सक्सेना के अनुसार हिन्दुओं द्वारा शौच के समय कान पर जनेऊ लपेटने का एक स्पष्ट वैज्ञानिक आधार यह है कि आंतों के संकुचन और फैलाव की गति बढ़ जाती है । फलतः कब्ज दूर होता है और मल त्याग शीघ्र होता है ।
इसके अलावा मूत्राशय की मांसपेशियों का संकुचन वेग के साथ होने से मूत्र त्याग ठीक प्रकार से होता है । इटली में बाँटी यूनिवर्सिटी के न्यूरो सर्जन प्रोफेसर एनारीब पिटाजेली ने अपने से ज्ञात किया है कि कर्ण मूल के चारों ओर दबाव डालने से हृदय को बल मिलता है ।
मनुस्मृति ( 1 / 92 ) में कहा गया है
ऊर्ध्व नाभेर्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः ।
तस्मान्मेध्यतमं त्वस्य मुखमक्तं स्वयम्भुवा । ।
तस्मान्मेध्यतमं त्वस्य मुखमक्तं स्वयम्भुवा । ।
अर्थात पुरुष के शरीर की नाभि से ऊपर का भाग पवित्र और नाभि से नीचे का भाग अपवित्र होता है । नाभि से नीचे का भाग मल - मूत्र धारक होने के कारण शौच काल में अपवित्र होता है । इसी कारण शौच - काल में पवित्र जनेऊ को कान पर लपेटकर रखा जाता है ।
अह्निककारिका में कहा गया है--
मूत्रे तु दक्षिणे कर्णे पुरीषे वामकर्णके ।
उपवीतं सदाधार्य मैथुनेतूंपवीतिवत् । ।
अर्थात् मूत्र विसर्जन करते समय यज्ञोपवीत दाएं कान पर और शौच - काल में बाएं कान पर लपेटना चाहिए । लेकिन मैथुन काल में जनेऊ को जैसे सदा पहनते हैं , वैसे ही पहनना चाहिए ।कूर्म पुराण ( 13 / 34 ) में कहा गया है -
निधाय दक्षिणे कर्णे ब्रह्मसूत्रमुदड्मुखः । अघ्नीकुर्याच्छकृन्मूत्रं रात्रे चेद दक्षिणामुखः । ।
अर्थात् दाएं कान पर जनेक लपेटकर दिन में उत्तराभिमुख होकर और रात में दक्षिणाभिमुख होकर ही मल - मूत्र का विसर्जन करना चाहिए ।
विभिन्न धर्मशास्त्रों में दाएं कान की पवित्रता को स्वीकार किया गया है । इसी कारण दाएं कान को बंधित करके ही शौच आदि अपिवत्र कर्म करने के निर्देश दिए गए हैं ।
गोभिल गृहासूत्र ( 2 / 90 ) में दाएं कान की पवित्रता के सम्बन्ध में कहा गया है -
मरुतः सोम इंद्राग्नि मित्रवरुणो तथैव च ।
एतै सर्वे च विप्रस्य श्रोत्रे तिष्ठन्ति दक्षिणे । ।
अर्थात् वायु , चन्द्रमा , इन्द्र , अग्नि , मित्र तथा वरुण आदि देवताओं का वास ब्राह्मण के दाएं कान में ही होता है । सांख्यायन के अनुसार ब्राहाण के दाएं कान में आदित्य , वसु , रुद्र , वायु और अग्नि देवता निवास करते हैं ।
पाराशर के मतानुसार गंगा आदि पवित्र नदियां और तीर्थ दाएं कान में निवास करते हैं । शौच के समय कान पर जनेऊ लपेटने के सम्बन्ध में आयर्वेद में कहा गया है कि दाएं कान के पास से होकर गुजरने वाली एक विशेष नाडी लोहितिका मल - मूत्र के द्वार तक पहुंचती है । इस नाड़ी पर जनेऊ लपेटने से दबाव पड़ने पर मल - मूत्रादि का निष्पादन सुगम हो जाता है ।
आयुर्वेद के अनुसार दाएं कान की नाड़ी के निकट से मूत्राशय का और बाएं कान की नाड़ी से मलाशय का सम्बन्ध है । अतः मूत्र त्याग करते समय दाए कान पर जनेका लपेटने से बहुमूत्र , प्रमेह और मधुमेह जैसे रोगों में लाभ मिलता है । इसी प्रकार बाएं कान पर जनेऊ लपेटने से बवासीर , भगंदर और कांच निकलने जैसी बीमारियों में अपेक्षित लाभ मिलता है । मल - त्याग के समय मूत्र विसर्जन भी होता है . अतः शौच जाते समय दाएं और बाएं दोनों कानों पर जनेऊ लपेटना चाहिए ।
लंदन के क्वीन एलिजाबेथ चिल्ड्रन हॉस्पिटल के भारतीय मूल के डॉक्टर एस . आर , सक्सेना के अनुसार हिन्दुओं द्वारा शौच के समय कान पर जनेऊ लपेटने का एक स्पष्ट वैज्ञानिक आधार यह है कि आंतों के संकुचन और फैलाव की गति बढ़ जाती है । फलतः कब्ज दूर होता है और मल त्याग शीघ्र होता है ।
इसके अलावा मूत्राशय की मांसपेशियों का संकुचन वेग के साथ होने से मूत्र त्याग ठीक प्रकार से होता है । इटली में बाँटी यूनिवर्सिटी के न्यूरो सर्जन प्रोफेसर एनारीब पिटाजेली ने अपने से ज्ञात किया है कि कर्ण मूल के चारों ओर दबाव डालने से हृदय को बल मिलता है ।
Nice ... Helpful Knowledge
जवाब देंहटाएं