क्या आप जानते हैं ? क्यों किया जाता है विद्यारंभ संस्कार।



पूरे विश्व में जहां विद्या अध्यापन के नाम पर केवल संस्कृतियों का उत्पादन किया जा रहा था ऐसे समय में भारत वर्ष के भीतर शिक्षा की नींव रखी जा चुकी थी उस समय भारत के अंदर 16 सौ से भी अधिक गुरुकुल माने जाते थे जहां माता-पिता अपने अपने बच्चों को शिक्षा सहित संस्कारों का भी प्रतिपादन करना भली-भांति सीखाने के लिए इन्हे गुरुकुलों में भेजा करते थे। जहां से इनके जीवन की नई शुरुआत होती थी ऐसी स्थिति में जहां यह विद्या का शुभारंभ करते थे व संस्कारों को ग्रहण कर अपने घर आते थे उससे पूर्व यथा विधि जातक को ईश्वर का नाम लेकर सरस्वती की आराधना कर विद्यालय में भेज विद्या का शुभारंभ करना ही विद्यारंभ संस्कार कहलाता था।



तो आइए जानते हैं  क्या होता है विद्यारंभ संस्कार

इस संस्कार का उद्देश्य तत्वज्ञान की प्राप्ति कराना है । जब बालक - बालिका शिक्षा ग्रहण करने योग्य हों तब यह संस्कार किया जाता है । मंगल के देवता गणेश और कला की देवी सरस्वती को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में होती है शास्त्र वचन है कि जिसे विद्या नहीं आती उसे धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष के फलों की प्राप्ति नहीं होती । इसलिए विद्या आवश्यक है ।

ज्ञानरूप वेदों का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान भी शास्त्रों में वर्णित है ।

इसके करने से बालक में मेधा , प्रज्ञा . विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है । इससे वेदाध्ययन आदि में न केवल सुविधा होती है , बल्कि विद्याध्ययन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती ।

ज्योतिर्निबंध में लिखा है - 

विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाऽयुः प्रवर्धते ।
विद्यया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययामृतमश्नुते ।।

 अर्थात् वेद के अध्ययन से सारे पापों का नाश होता है , आयु की वृद्धि होती है । सारी सिद्धियां प्राप्त होती हैं । यहां तक कि विद्यार्थी को अमृत रस अशन - पान के रूप में उपलब्ध हो जाता है । वेदवाक्यानुसार दुखों का अंत भी ज्ञान से ही संभव है ।
यथा ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः । 

अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती । विद्या का हमारे जीवन में बहुत प्रभाव पड़ता है इसीलिए हितोपदेश में भी लिखा गया है-

विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।
पात्रता धन्माप्नोती धन: धर्मं तथा सुखम्  ।।

 अर्थात विद्या से विनय की प्राप्ति होती है और विनयता हमें पात्रता देती है पात्रता से हमें धन की प्राप्ति होती है और यदि उस धन से धर्म किया जाए तो जरूर सुख प्राप्त होता है।


ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरू के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है।[1] भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल में पढ़े हुए छात्रों का सब जगह बहुत सम्मान होता था। राम ने ऋषि वशिष्ठ के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। इसी प्रकार पाण्डवों ने ऋषि द्रोण के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी।
प्राचीन भारत के गुरूकुलों के अंतर्गत तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ थीं-
  • (१) गुरुकुल- जहाँ विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे,
  • (२) परिषद- जहाँ विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी,
  • (३) तपस्थली- जहाँ बड़े-बड़े सम्मेलन होते थे और सभाओं तथा प्रवचनों से ज्ञान अर्जन होता था। नैमिषारण्य ऐसा ही एक स्थान था।
गुरुकुल आश्रमों में अनादिकाल से ही करोड़ों विद्यार्थी विद्या-अध्ययन करते रहे हैं।भारतवर्ष के गुरुकुल आश्रमों के आचार्यों को उपाध्याय और प्रधान आचार्य को 'कुलपति'या महोउपाध्याय कहा जाता था । रामायण काल में वशिष्ठ का बृहद् आश्रम था जहाँ राजा दिलीप तपश्चर्या करने गये थे, जहाँ विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ था।

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