जानिए सनातन धर्म के अनुसार अन्तर्जातीय विवाह क्यों नहीं करना चाहिए ?
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्ण संकरः ।
संकरो नरकायैवं कुलहनानां कुलस्य च ।
अर्थात् स्त्रियों के व्यभिचारिणी होने पर वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होती है । यह वर्ण संकर संतान कुल का नाश करने वाली एवं समस्त कुल के लिए नरक का मार्ग प्रशस्त करने वाली होती है । वर्णसंकर संतान श्राद्धादि कर्म की अधिकारी न होने के कारण पिण्ड - तर्पण आदि न करने से पितर तृप्त नहीं होते । इस प्रकार मनुष्य के दोनों लोक बिगड़ जाते हैं । जैसे आम आदि वृक्षों में दूसरी जाति के पौधों की कलम लगाने पर उनसे प्राप्त फूल विभिन्न होते हैं । किन्तु इस प्रकार से तैयार किए गए वृक्ष में दूसरे वृक्ष उगा सकने की सामर्थ्य नहीं रहती ।
इतना ही नहीं , विज्ञान ने भी इस प्रकार के विवाह के विषय में स्वीकृति नहीं दी है । क्योंकि विजातीय संसर्ग से दोनों जातियों के गुण - धर्म नष्ट हो जाते हैं और नई विकृतियां जन्म लेती हैं । जैसे यव एवं गुड़ अथवा बबूल में अलग - अलग नशा नहीं होता । परन्तु इन तीनों अलग - अलग गुण धर्म वाली भिन्न प्रजातियों को मिश्रित कर दिया जाता है तो उससे मदिरा बनती है । शहद एवं घी दोनों अलग - अलग सेवन करने पर लाभ होता है । किन्तु इन दोनों विजातीय पदार्थों को एक कर दिया जाए तो विष बन जाता है । इस प्रकार वर्णसंकर संतान उत्पन्न होने से समाज में विकृत व्यवस्था का जन्म होगा । इसी कारण हिन्दू सनातन धर्म ने अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं दी ।
यह शास्त्र मत है इसमें आपकी क्या राय है कृपया कमेंट बोक्स में कमेंट करके अवश्य बतायें!
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
आपके प्रोसहन हेतु धन्यवाद हम आपकी सेवा में हमेशा तत्पर हैं एवं हमारा पर्यास है की ऐसी ही महत्वपूर्ण एवं शास्त्रों में लिखित सटीक जानकारी हम आप तक पहुंचाएं एवं आप भी हमारे नियमित पाठक बने रहें !