जानिए हमारे शास्त्रों में प्रेम विवाह की अनुमति क्यों नहीं है?
वर्तमान वैज्ञानिक युग में मनुष्य भौतिक संसाधनों की चमक - दमक में इस प्रकार अंधा हो गया है कि अपने प्राचीन आत्मिक सौन्दर्य को नजरअन्दाज करके बाहरी चमक - दमक एवं शारीरिक सौन्दर्य पर आकर्षित होकर प्रेम विवाह को अधिक महत्व देने लगा है । आज की नई शिक्षा पद्धति एवं संचार के नवीन माध्यमों से नया शिक्षित वर्ग पूर्ण रूप से गंधर्व विवाह ( प्रेम विवाह ) को मान्यता देने लगा है ।
आज अनेक विद्वान एवं धर्माचार्य भी इसकी वकालत में जुट गए हैं और तर्क दे रहे हैं कि विवाह से पूर्व स्त्री - पुरुष के बीच आपसी प्रेम , मेल - मिलाप होना आवश्यक है । जब वे आपस में पूर्ण रूप से परिचित हो जाएं , एक - दूसरे को पूर्ण रूप से जान लें तभी उन्हें विवाह सूत्र में बंधना चाहिए । इस प्रकार लोगों में यह एक धारणा बन गई है कि जब दो विपरीत लिंगियों में प्रेम हो गया है तो दोनों का विवाह होना ही चाहिए ।
प्रेम विवाह सौन्दर्य पर आधारित होने के कारण नितान्त भ्रमपूर्ण है । साथ ही अस्थायी भी है । क्षणिक शारीरिक सौन्दर्य अथवा अन्य अस्थायी क्षणिक गुणों से प्रभावित होकर जीवन का इतना महत्वपूर्ण निर्णय कर लेना उस दीवार के समान है । जिसकी नीव बालू पर रखी गई है । इस प्रकार के सम्बन्ध आजीवन निभ नहीं पाते । यही कारण है कि जिस अनुपात में प्रेम विवाह बढ़े हैं , उसी अनुपात में विवाह विच्छेद की घटनाएं भी बढ़ी हैं ।
आज रूप - सौन्दर्य का आकर्षण विकर्षण में बदलते देर नहीं लगती । हम विदेशी सभ्यता में इतने अन्धे हो गए हैं कि उनके उन्मुक्त आचार - विचार को देखकर उनका अनुसरण कर रहे हैं । किन्तु वहां दाम्पत्य जीवन में उत्पन्न होने वाले तूफानों को नहीं देख पाते या क्षणिक सुख की अभिलाषा में उसे देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं ।
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