जानिए क्या होता है समावर्तन संस्कार ?


समावर्तन संस्कार विद्यार्थी जीवन समाप्त कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करन का प्रतीक है ।

समावर्तन संस्कार के बारे में एक कथा भी प्रचलित है कि एक बार देव , मानव और दानव ब्रह्माजी के पास जाकर ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे।काफी समय बाद उन्होंने ब्रह्माजी से समावर्तन अर्थात् उपदेश ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की । तब सबसे पहले देवताओं ने ब्रह्माजी से कहा , " प्रभो । कृपया हमें उपदेश दीजिए । " ब्रह्माजी ने एक अक्षर में उपदेश दिया , ' द '

                       इस पर देवता बोले , " प्रभो । हम आपका आशय समझ गए । स्वर्गादि लोकों में भोग - विलास ही अधिक है । इन भोगों में लिप्त होकर अंततः हम स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं । अतः आप हमें ' द ' से दमन अर्थात भोगों का दमन करने का उपदेश दे रहे है । " ब्रह्माजी ने मुस्कराते हुए कहा , " तुम ठीक समझा ऐसा ही करो ।

                       " फिर मानव ब्रह्माजी के पास जाकर बोले , " प्रभो । कृपया हमें भी उपदेश दीजिए । " ब्रह्माजी ने उन्हें भी उपदेश दिया , " द " ।  ब्रह्मा जी की बात समझकर मानव बोले " प्रभो "! हम जीवनभर धन-संग्रह में लगे रहते है । इस धन संग्रह की प्रवृति से हमारे पुण्य कर्मों का क्षय हो जाता है। अत: आप हमें ' द ' से दान करने का उपदेश दे रहे हैं । ब्रह्मा जी फिर मुस्काए, " तुम भी ठीक समझे । ऐसा ही करो ।"

                 इसके बाद दानव ब्रह्मा जी के पास जाकर बोले , " प्रभो कृपा कर अब हम उपदेश दीजिए । " ब्रह्माजी ने उन्हें भी उपदेश दिया , " द " दानव भी ब्रह्मा जी का तात्पर्य समझ गए और बोले , "  प्रभो हमारा स्वभाव हिंसक है । क्रोध व हिंसा अब हमारे दैनिक जीवन के अंग बन गए हैं । अतः आप हमें ' द ' से दया का उपदेश दे रहे है ताकि हम प्राणी मात्र से दया भाव रख सकें ।" दानवों की बात सुनकर ब्रह्माजी पुनः मुस्कराए और बोले , " तुम भी ठीक समझे । तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिए ।


               इस प्रकार समावर्तन अर्थात उपदेश संस्कार गृहस्थ जीवन में प्रवेश का प्रथम चरण और प्रमुख संस्कार है ।                             समावर्तन के माध्यम से एक गुरु अपने शिष्य को दान , दया . इंद्रिय संयम , मानव हित की शिक्षा देता है ।

ऋग्वेद ( 3 / 8 / 4 ) में कहा गया है कि-

युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः ।
तं धीरासः कवय उन्नयंति स्वाध्ययो: मनसा देवयंतः । । 

अर्थात उत्तम वस्त्र धारी युवा (ब्रह्मचारी)  विद्या से विभूषित होकर जब गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है तो मंगल शोभा वाला होता है । उसे धीर ,बुद्धिमान, विद्वान लोग उत्तम ध्यान युक्त मान्य से विद्या प्रकाश की भावना से उच्चासन देते हैं ।


अथर्ववेद ( 11/7/26 ) के अनुसार ब्रह्मचारी सभी धातुओं को धारण कर ज्ञान में समुद्रवत गम्भीर होकर परमानंद में लीन होकर तपकर्ता होता है वह विनम्र शक्तिशाली, पिंगल ज्योतियुक्त होकर भूमंडल पर सुशोभित होता है।

                       

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