जानिए क्या होते हैं होलाष्टक ? क्यों हो जाते हैं होलाष्टक में शुभ कार्य निषेध ?

चन्द्र मास के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होलिका पर्व के रूप में मनाया जाता है।

इस होली के पावन पर्व के आने की सूचना होलाष्टक से प्राप्त होती है और होलाष्टक को होली पर्व की सूचना लेकर आने वाला एक हरकारा भी कहा जा सकता है.



"होलाष्टक" के शाब्दिक अर्थ पर जायें, तो होल + अष्टक अर्थात होली से पूर्व के आठ दिन,

यह जो पूर्व के आठ दिन होते है, वहीं होलाष्टक कहलाते है। सामान्य रुप से देखा जाये तो होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे आठ दिनों का त्यौहार है. दूलेण्डी के दिन रंग और गुलाल के साथ इस पर्व का समापन होता है.

अब क्यूं की इस उत्सव की
शुरुआत होलाष्टक से प्रारम्भ होकर दूलेण्डी तक रहती है. इसके कारण प्रकृति में खुशी और उत्सव का माहौल रहता है.

इस वर्ष 2020 में दुर्गा भवानी ज्योतिष केंद्र के मध्यम से ज्योतिषाचार्य जितेन्द्र सकलानी जी के अनुसार  वाणी भूषण वार्षिक पंचाग के अनुरूप बताया गया है कि 02 मार्च 2020  से 10 मार्च, 2020 के मध्य की अवधि होलाष्टक पर्व की रहेगी. इस दिन से होली उत्सव के साथ-साथ होलिका दहन की तैयारियां भी शुरु हो जाती है.


होलिका दहन में होलाष्टक की विशेषता

होलिका पूजन करने के लिये होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकडी, सूखी खास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है. जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है. जिस गांव, क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता है उस होली का डंडा स्थापित होने के बाद संबन्धित क्षेत्र में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाते हैं ऐसी मान्यता है।


होलाष्टक के दिन से शुरु होने वाले कार्य

सबसे पहले इस दिन,(होलाष्टक शुरु होने वाले दिन) होलिका दहन स्थान का चुनाव किया जाता है फिर इस दिन इस स्थान को गंगा जल से शुद्ध कर इस स्थान पर होलिका दहन के लिये लकडियां एकत्र करने का कार्य किया जाता है. इस दिन जगह-जगह जाकर सूखी लकडियां विशेष कर ऎसी लकडियां जो सूखने के कारण स्वयं ही पेडों से टूट्कर गिर गई हों, उन्हें एकत्र कर चौराहे पर एकत्र कर लिया जाता है.

होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडियां डाली जाती है. इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बडा ढेर बन जाता है. व इस दिन से होली के रंग फिजाओं में बिखरने लगते है. अर्थात होली की शुरुआत हो जाती है. बच्चे और बडे इस दिन से हल्की फुलकी होली खेलनी प्रारम्भ कर देते है.

होलाष्टक में कार्य निषेध

होलाष्टक मुख्य रुप से उत्तरी भारत में मनाया जाता है. होलाष्टक के दिन से एक ओर जहां उपरोक्त कार्यो का प्रारम्भ होता है. वहीं कुछ कार्य ऎसे भी है जिन्हें इस दिन से नहीं किया जाता है. यह निषेध अवधि होलाष्टक के दिन से प्रारम्भ होकर होलिका दहन के दिन तक रहती है. अपने नाम के अनुसार ही *होलाष्टक* होली के ठीक आठ दिन पूर्व शुरु हो जाते है.

होलाष्टक के मध्य दिनों में 16 संस्कारों में से किसी भी संस्कार को नहीं किया जाता है. यहां तक की अंतिम संस्कार करने से पूर्व भी शान्ति कार्य किये जाते है. इन दिनों में 16 संस्कारों पर रोक होने का कारण इस अवधि को शुभ नहीं माना जाता है.


होलाष्टक की पौराणिक मान्यता

जैसा की उपयुक्त बताया गया है कि फाल्गुन शुक्लपक्ष अष्टमी से लेकर होलिका दहन तक अर्थात पूर्णिमा तक होलाष्टक रहते है. इस दिन से मौसम की छटा में बदलाव आना आरम्भ हो जाता है. सर्दियां अलविदा कहने लगती है, और गर्मियों का आगमन होने लगता है. साथ ही वसंत के आगमन की खुशबू फूलों की महक के साथ प्रकृ्ति में बिखरने लगती है इसलिए इस पर्व का एक नाम बसंतोत्सव भी है  होलाष्टक के विषय में यह माना जाता है कि जब भगवान श्री भोले नाथ ने क्रोध में आकर काम देव को भस्म कर दिया था, तो उस दिन से होलाष्टक की शुरुआत हुई थी. इसलिए यह होलाष्टक़ कमदा सप्तमी के बाद प्रारम्भ होते हैं

होलाष्टक से जुडी मान्यताओं को भारत के कुछ भागों में ही माना जाता है. इन मान्यताओं का विचार सबसे अधिक पंजाब में देखने में आता है. होली के रंगों की तरह होली को मनाने के ढंग में विभिन्न है. होली उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडू, गुजरात, महाराष्ट्र, उडिसा, गोवा आदि स्थानों में अलग - अलग ढंग से मनाने का चलन है. देश के जिन प्रदेशो में होलाष्टक से जुडी मान्यताओं को नहीं माना जाता है. उन सभी प्रदेशों में होलाष्टक से होलिका दहन के मध्य अवधि में शुभ कार्यों को करने में कोई प्रतिबंध नहीं है।



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