जानिए पौराणिक ग्रंथ अनुसार कौन है तुलसी ? क्यों नहीं तोड़नी चाहिए रविवार को तुलसी ?

भारतीय संस्कृति में तुलसी को पूजनीय माना जाता है, धार्मिक महत्व होने के साथ-साथ तुलसी औषधीय गुणों से भी भरपूर है। आयुर्वेद में तो तुलसी को उसके औषधीय गुणों के कारण विशेष महत्व दिया गया है। तुलसी ऐसी औषधि है जो ज्यादातर बीमारियों में काम आती है। इसका उपयोग सर्दी-जुकाम, खॉसी, दंत रोग और श्वास सम्बंधी रोग के लिए बहुत ही फायदेमंद माना जाता है।

तो आइए जानते हैं मानव जीवन के लिए वरदान साबित हुई तुलसी की उत्पत्ति कहां से हुई  पौराणिक ग्रंथों के अनुसार :-



देवी भागवत पुराण के अनुसार  एक समय एक वृंदा नाम कि कन्या हुआ करती थी जो भगवान महाविष्णु की भक्त थी। वह भगवान विष्णु की पूजा में लीन रहती थी और एक दिन उन्हें गणेश भगवान मिले जो एक सुन्दर बगिया में खुशबूदार पेड़ों के पास ध्यान में मग्न थे। गणेश भगवान ने चमकीला पीला वस्त्र पहना था और उनके पूरे शरीर पर चन्दन का लेप लगा था। गणेश भगवान के इस रूप को देखकर वृंदा उनपर मोहित हो गयी और उनके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया।

भगवान गणेश ने कहा कि वह ब्रम्हचर्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं वह सन्यासी हैं और शादी के बारे में तो सोच भी नहीं सकते क्यूंकि इससे उनके संयमी जीवन पर असर पड़ेगा। तुलसी यह सुनकर गुस्सा हुई और गणेश के इस वक्तव्य पर क्षुब्ध होकर उन्होंने गणेश को शाप दिया कि उनकी इच्छा के बिना भी उनको शादी करनी पड़ेगी।

भले ही गणेश अत्यंत परोपकारी थे पर वृंदा के इस आचरण से उन्हें गुस्सा आया। उन्होंने वृंदा को श्राप दिया कि उसकी शादी एक दानव से होगी और उसे काफी कष्ट भुगतना पड़ेगा। वृंदा को अपनी गलती का अंदाज़ा हो गया और उसने भगवान गणेश से विनती की ताकि वह उसे इस कठोर श्राप से मुक्त कर दें।

भगवान गणेश खुश हुए और उसे माफ कर दिया। उन्होंने कहा कि श्राप के अनुसार उसकी शादी एक दानव से तो होगी पर एक समय के बाद में वह तुलसी नामक पौधा बन जायेगी। उसके बाद सब में वह अपने अद्भुत औषधीय गुण के कारण जानी जायेगी और भगवान महाविष्णु की अतिप्रिय होगी। महाविष्णु तुलसी चढ़ाये जाने से काफी खुश होंगे परंतु आपने मेरी तपस्या में अपने दिए गए श्राप से विघ्न डाला है इसलिए तब भी मेरी पूजा से आपका कोई भाग नहीं होगा और तभी से भगवान गणेश को तुलसी अप्रिय हैं और उनके पूजन में भक्ष्य नहीं है।

गणेश भगवान का श्राप और आशीर्वाद दोनों ही सच हुए और तुलसी का विवाह शंकचूड़ नाम के दानव से हुआ। उसने पूरी ज़िंदगी उसके साथ गुज़ारी और फिर उसके बाद भगवान विष्णु की माया से तुसली के पौधे का रूप लिया।

जिसकी कथा निम्न प्रकार से है 

एक बार देवराज इंद्र देवगुरू बृहस्पति के साथ भगवान शिव का दर्शन करने कैलाश गए. महादेव ने दोनों की परीक्षा लेनी चाहिए इसलिए रूप बदलकर अवधूत बन गए. उनके शरीर पर कोई वस्त्र न था.

उनका शरीर जलती हुई अग्नि के समान धधक रहा था और अत्यंत भयंकर नजर आते थे. अवधूत दोनों के रास्ते में खड़े हो गए. इंद्र ने एक विचित्र पुरुष को रास्ते में खड़े देखा तो चौंके.

इंद्र को देवराज होने का गर्व घेरने लगा. उन्होंने उस भयंकर पुरुष से पूछा तुम कौन हो? भगवान शिव अभी कैलाश पर विराज रहे हैं या कहीं भ्रमण पर हैं. मैं उनके दर्शन के लिए आया हूं.

इंद्र ने कई प्रश्न किए लेकिन वह पुरुष योगियों के समान मौन ही रहे. इंद्र को लगा कि एक साधारण प्राणी उनका अपमान कर रहा है. उनके मन में देवराज होने का अहंकार उपजा जो क्रोध में बदल गया.

इंद्र ने कहा मेरे बारबार अनुरोध पर भी तू कुछ नहीं बोलकर मेरा अपमान कर रहा है. मैं तुझे अभी दंड देता हूं. ऐसा कहकर इंद्र ने वज्र उठा लिया. भगवान शिव ने वज्र को उसी समय स्तंभित यानी जड़ कर दिया.

इंद्र की बांह अकड़ गई. भगवान अवधूत क्रोध से लाल हो गए. बृहस्पति उनके चेहरे पर आई क्रोध की ज्वाला को देखकर समझ गए कि ऐसा प्रचंड़ स्वरूप महादेव के अतिरिक्त किसी का नहीं हो सकता.

बृहस्पति शिवस्तुति गाने लगे. उन्होंने इंद्र को भी महादेव के चरणों में लेटा दिया और बोले प्रभु इंद्र आपके चरणों में पड़े हैं, आपके शरणागत हैं. आपके ललाट से प्रकट अग्नि इन्हें जलाने को बढ़ रही है. हम शरणागतों की रक्षा करें. बृहस्पति ने विनती की प्रभु भक्तों पर आपकी सदा कृपा बरसती है. आप भक्त वत्सल और सर्वसमर्थ हैं. आप इस तेज को कहीं और स्थान दे दीजिए ताकि इंद्र के प्राणों की रक्षा हो.

भगवान रूद्र ने कहा बृहस्पति मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं. इंद्र को जीवनदान देने के कारण तुम्हारा एक नाम जीव भी होगा. मेरे तीसरे नेत्र से प्रकट इस अग्नि का ताप देवता सहन नहीं कर सकते. इसलिए मैं इसको बहुत दूर छोड़ूंगा.

महादेव ने उस तेज को हाथ में धारणकर समुद्र में फेंक दिया. वहां फेंके जाते ही भगवान शिव का वह तेज तत्काल एक बालक के रूप में परिवर्तित हो गया. सिंधु से उदभव होने के कारण उसका नाम सिन्धुपुत्र जलंधर प्रसिद्ध हुआ.

जलंधर जिसका नाम शंखचूड़ भी हुआ, शिव के तेज से उत्पन्न हुआ था इस कारण परम शक्तियों से संपन्न था. वह देवों से भी ज्यादा शक्तिवान था. वह उस तेज से पैदा हुआ था जो इंद्र को समाप्त करने वाला था इसलिए असुरों ने उसे अपना राज बनाया. अवधूत रूप में यह लीला करने के बाद महादेव अंतर्धान हो गए. इंद्र के गर्व का भंजन भी हुआ भगवान के दर्शन भी हो गए.

तुलसी से जुड़ी एक कथा बहुत प्रचलित है। श्रीमद देवि भागवत पुराण में इनके अवतरण की दिव्य लीला कथा भी बनाई गई है। एक बार शिव ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था। उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था।

दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवि पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया।

भगवान देवाधिदेव शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंतध्यान हो गईं।

देवि पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया। जालंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसीलिए जालंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था।

इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुंचे, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर के बारे में पूछा।

ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्चिछत हो कर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें।

भगवान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ। जालंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जालंधर युद्ध में हार गया।

वृंदा का अभिशाप :-

जब वृंदा ने भगवान विष्णु को छुआ तब उसे पता चला कि वह जालंधर नहीं है। और उसने पूछा कि वह कौन हैं। जब वृंदा को भगवान विष्णु के छल का पता चला तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर का बन जाने का शाप दे दिया। वृंदा ने पति के संग प्राण त्याग दिए।
भगवान विष्णु वृंदा के साथ हुए छल के कारण लज्जित थे इसलिए वृंदा के शाप को जीवित रखने के लिए उन्होनें अपना एक रूप पत्थर रूप में प्रकट किया जो शालिग्राम कहलाया।

तुलसी उत्पत्ति:-

भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा कि तुम अगले जन्म में तुलसी के रूप में प्रकट होगी और लक्ष्मी से भी अधिक मेरी प्रिय रहोगी। तुम्हारा स्थान मेरे शीश पर होगा। मैं तुम्हारे बिना भोजन ग्रहण नहीं करूंगा। यही कारण है कि भगवान विष्णु के प्रसाद में तुलसी अवश्य रखा जाता है। बिना तुलसी के अर्पित किया गया प्रसाद भगवान विष्णु स्वीकार नहीं करते हैं।
भगवान विष्णु ने कहा, 'हे वृंदा! यह तुम्हारे सतीत्व का फल है कि तुम तुलसी का पौधा और गंडकी नदी बनकर मेरे साथ ही रहोगी। मैं यहीं गंडकी नदी के किनारे तुम्हारे साथ रहूंगा।


शालीग्राम अवतरण तथा शालीग्राम तुलसी का विवाह :-

वृंदा के राख से तुलसी का पौधा निकला। वृंदा की मर्यादा और पवित्रता को बनाये रखने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी से कराया। इसी घटना को याद रखने के लिए हर वर्ष कार्तिक शुक्ल पक्ष  एकादशी यानी देव प्रबोधनी एकादशी के दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ कराया जाता है।

क्यों रविवार को है तुलसी तोड़ना निषेध:-

ऐसी मान्यता है रविवार भगवान विष्णु का प्रिय वार है एवं उस दिन तुलसी माता भगवान विष्णु के ध्यान में मग्न होती है यदि उस दिन कोई माता तुलसी को छूता है तो उसे नर्क की प्राप्ति होती है इसीलिए रविवार  को तुलसी तोड़ना निषेध है परंतु पूजन करना नहीं रविवार को तुलसी पूजन कर सकते हैं आराध्य का पूजन करने में कोई दिन वार घटिका आदि नहीं देखा जाता है।

पूजन का शुभ फल 

स्कन्द पुराण के अनुसार शालिग्राम और तुलसी की पूजा करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। प्रतिवर्ष कार्तिक मास की द्वादशी को तुलशी और शालिग्राम की पूजा की जाती है। इस पूजा का फल व्यक्ति के समस्त जीवन में पुण्यों और दान के फल के बराबर होता है।

जिस घर में तुलसी होती हैं, वहां यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते। गंगा व नर्मदा के जल में स्नान तथा तुलसी का पूजन बराबर माना जाता है। चाहे मनुष्य कितना भी पापी क्यों न हो, मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।

उपर्युक्त प्रेषित कथा बडे यत्नों से अलग-अलग स्थानों से खोजकर 
दुर्गा भवानी ज्योतिष केंद्र के माध्यम से 
ज्योतिषाचार्य जितेंद्र सकलानी जी के
अनुसार
 प्रस्तुत की गई है संभवत: हमारा पूर्ण प्रयास रहा है कि कथा में किसी प्रकार की कोई त्रुटी न रह गई हो परंतु यद्यपि तत्पश्चात भी हमारे पाठकों एवं विद्वत जनों को कोई त्रुटि नजर आती है तो उसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं
 🙏

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